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धर्मध्यान का स्वरूप (१३३)
तत्वानशासन में रत्नत्रयसे युक्त ध्यान के अलावा, जो धर्म से युक्त ध्यान है वह भा धर्म ध्यान है ऐसा माना गया है ।- जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र मोक्ष सुख का कारण है, वह भी धर्म ध्यान है। X जो मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का निज परिणाम है वह भी धर्म ध्यान है। * यह ध्यान प्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आता है यह शुभ या सद्ध्यान माना गया है क्योंकि इस ध्यान से जीव का रागभाव मंद होता है और वह आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्त होता है। यह धर्मध्यान आत्मविकास का प्रथम सोपान है। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकलता है कि धर्म के स्वरूप का चिन्तन ही धर्मध्यान है । धर्म ध्यान प्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आता है, इसलिए इस ध्यान को शुभ ध्यान भी कहा गया है।
धर्मध्यान के लक्षण :जिनसे धर्म ध्यान की पहचान हो वही लक्षण कहलाता है। धर्म ध्यान के आर्जव, लघुता, मार्दव और उपदेश ये चार प्रकार के लक्षण कहे गये हैं । + १- आर्जव :
जिसमें खिचाव आने पर भी कुटिलता नहीं आती अपितु सरलता ही रहती है ऐसी सरलता को आर्जव कहते हैं । अर्थात् काय, वचन और मन की प्रवृत्ति को सरल रखना आर्जव है। - सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः।
तस्माद्यदपेतं हि धयं तद्ध्यानमभ्यधुः ।। (तत्वानुशासन ५२) X सष्टिज्ञान वृत्तानि मोह क्षोभ विवर्जितः ।।
यश्चात्मनो भवेद् भावो धर्मः शर्मकरो हि सः ।। (ध्यानस्तव १४) * चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो।। ___ मोह क्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। (प्रवचनसार१/३७ A (क) धम्मो वत्थु-सहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ।। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७८ (ख) भगवती सूत्र २५/७/८०३ (ग) उत्तराध्ययन सूत्र ३०/३५ + (क) भगवती आराधना, विजयोदया टी० १७०४ (ख) औपपातिक .