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________________ षष्ठ परिच्छेद धर्मध्यान का स्वरूप धर्म नाम स्वभाव का है। जीव का स्वभाव आनन्द है न कि ऐन्द्रिय सुख । अतः वह अतीन्द्रिय आनन्द ही जीव का धर्म है, जिससे धर्म का परिज्ञान होता है वही धर्मध्यान कहलाता है । जो धर्म से युक्त होता है वह धर्म्य है और इससे जो ध्यान किया जाये वह धर्मध्यान है।+ लेकिन कहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को धर्म कहा गया है और उस धर्म चिन्तन से युक्त जो ध्यान होता है, वह धर्म ध्यान कहा गया है।- स्थानाङग में इस ध्यान को श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त कहा है ।A ज्ञानसार में रागद्वेष को त्याग कर साम्यभाव से जीवादि पदार्थो का अपने स्वरूप के अनुसार ध्यान करना धर्मध्यान माना गया है । अपने धर्म से च्युत न होकर स्वभाव में आरूढ़ रहना भी धर्म ध्यान माना गया है ।.... x (क) धम्मस्स लक्खणं से अज्जवलहुगतमद्दवुवदेसा। उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रुचीओ दे । (भगवती आराधना, विजयोदया टी० १७०४) (ख) मूलाचार ६७६ + (क) महापुराण २१/१३३ (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/३६/४५०/४ (ग) भावपाहुड़ टीका ७८/२२६/१७ - (क) सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि धर्म्य तद्ध्यानमभ्यधुः ॥ (तत्वानुशासन (ख) रयणसार मूल ६७ A स्थानाड्.ग ४/२४७ जीवादयो ये पदार्थाः ध्यातव्याः ते यथास्थिताः चैव । धर्म ध्यानं भणितं रागद्वेषौ प्रमुच्य"..." ।। (ज्ञानसार १७) .. तत्रानपेतं यद्धर्मात्तद्ध्यानं धर्म्यमिष्यते। धोहि वस्तुयाथात्म्यमुत्पादादि त्रयात्मकम् ॥[आदिपुराण १३३/२१]
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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