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________________ [२२०] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन अयोगकेवली गुणस्थान में योगों का पूर्ण रूप से निरोध होने पर समुच्छिन्नक्रियअप्रतिपाती शुक्ल ध्यान होता है जबकि सयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहुर्त काल में जब मुनि स्थूल योगों का निरोध करके सक्ष्म काययोग में प्रवेश करता है तब सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती शुक्लध्यान होता है। आदिपुराण में छद्मस्थों के उपशान्तमोह और क्षीणमोह केशुक्ल और केवलियों के परमशुक्ल ध्यान माना है। A शुक्ल ध्यान का फल __शुक्ल ध्यान का मुख्य फल मोक्ष की प्राप्ति है लेकिन चारों ध्यानों का अलग-अलग जो फल है वह इस प्रकार है-पृथक्त्ववितकवीचार शक्ल ध्यान स्वर्ग एवं मोक्ष के सुखों को देने वाला है, इससे संवर, निर्जरा एवं अमर सुख तो प्राप्त होता है लेकिन मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। - इस ध्यान के द्वारा मुनि क्षण भर में मोहनीय कर्मो का मूल से ही नाश कर देता है।* तीन घातिया कर्मों का मूल रूप से ही नाश कर देना ही एकत्व वितर्कअवीचार शुक्लध्यान का फल है । x काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, अयोगस्यव्युपरतवि.यानिवर्तीति । [सर्वार्थसिद्धि ९/४०/४५४/७] A (क) शुक्लं परमशुक्लं चेत्याम्नाये तद् द्विधोदितम् । छद्मस्थ स्वामिक पूर्वं परं केवलिनां मतम् ।। (आदिपुराण २१/१६७) (ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/३८-४० ... (क) स्वर्गा पवर्गगति फल संवर्तनीयमिति । [चारित्रसार २०६/२] (ख) एवं संवर-णिज्जरामर सुहफलं एदम्हादो णिव्वुइगमणाणुवलं भादो। [षट्खण्डागम, ध. टी., १३/५/४/२६/७६/१] * अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामर्थात्रा प्रशान्तधीः । मोहमुन्मूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे ॥ ज्ञानार्णव ४२/२०] तिण्णं धादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमैयविदक्क अवीचार ज्झाणं । [षट्खण्डागम, ध टी. १३/५/४/२६/८१/२] द्रग्बोधरोधकद्वन्द्वं मोहविघ्नस्य वापरम् । स क्षिणोति क्षणादेव शुक्लधूमध्वजाचिषा ।। (ज्ञानार्णव ४२/२६)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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