________________
शुक्ल ध्यान (२१९)
वीतराग छदमस्थ माना गया है ।- चारित्रसार में भी इसी बात का समर्थन किया गया है ।= आचार्य नेमिचन्द्र जी ने अपूर्वकरण, अनिवत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक तथा उपशान्त कषाय इन चार गुणस्थानों में इस पहले ध्यान को माना है। A ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जिन महामुनि ने द्वादशांग शास्त्ररूप महासमुद्र का अवगाहन किया है वही मुनि पृथक्त्व वितर्कवीचार शक्ल ध्यान को ध्यावे । →
क्षीणकषाय गुणस्थान के काल में सभी जगह एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान होता है । *हरिवंशपुराण में बादर योगों के निरोध होने तक सम्भवत:, सयोगकेवली के द्वितीय शक्ल ध्यान माना है।) -- उवसंतकसायवीयराय छदुमत्थो चोद्दस-दस-णवपुवहरो पसत्थति विहसंघडणो कमाय-कलंकुत्तिण्णो तिसु जोगेसु एगजोगम्हि वट्टमाणो एगदव्वं गुणपज्जायं वा पढमसमए बहुणयगहमणिलीणं सुद-रविकिरणुज्जोय बलेण ज्झाएदि । (षट्खण्डागम, ध. टी., १३/५/४/२६/६०/१) = (क) चतुर्दशदशनवपूर्वधरयति वृषभनिषेव्यमुपशान्त क्षीण कषायभेदात्।
(चारित्रसार २०६/१) A द्रव्यसंग्रह, टी. २०४/१ + श्रु तस्कन्धमहासिन्धुमवगाह्य महामुनिः । ___ध्यायेत् पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानमग्रिमम् ।। (ज्ञानार्णव ४२/२२) * (क) क्षीण कषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयं शुक्लध्यानं । (द्रव्यसंग्रह
टी० ४८/२००) (ख) खीणकसाओ सुक्कलेस्सिओ ओघबलो ओघसूरो वज्जरिसहव
रणारायणसरीरसंधडणो अण्णदरसंठणो चोद्दसपुव्वधरो दसपुबहरोणवपुव्वहरो वा खइयसम्माइट्ठी खविदासेसकसायवग्गो ।
[षट्खण्डागम १३/५/४/२६/७९/१२] (ग) ज्ञानार्णव ४२/२५ महरिवंशपुराण ५६/७२-७८