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________________ ध्यान का प्ररूपक जैन साहित्य [५१] अध्यात्मसार:-... यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभक्त है। योग अधिकार एवं ध्यान कषायों एवं रागद्वेष पर विजय पाने, एवं अनित्यादि बारह और मैत्री आदि चार भावनाओं के साथ ध्यान के योग्य आसनों का वर्णन किया है। पाँचवे व छठे अध्याय में विस्तार से प्राणायाम का निरूपण एवं उससे होने वाली हानि का चित्रण किया है। सातवें अध्याय से दसवें अध्याय तक आर्त, रौद्र, धर्म्य ध्यान की विस्तृत रूप से चर्चा की है। ग्यारहवें एवं बारहवें अध्यायों में शुक्ल ध्यान का निरूपण करके स्वानुभव सिद्ध तत्व को प्रकाशित किया गया है। इस पर उनकी स्वोपज्ञवृत्ति भी है । यह वृत्ति बारह हजार श्लोक प्रमाण है। योग प्रदीपः इस ग्रन्थ के प्रणेता के नाम एवं काल का अभी तक पता नहीं चल सका है। इसमें कुल १४३ श्लोक है। जिसमें परमात्मा के साथ शुद्ध मिलन एवं परमपद की प्राप्ति आदि की विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। इसमें समरसता, रूपातीत, ध्यान, सामायिक, शुक्ल ध्यान, अनाहतनाद, निराकार ध्यान आदि विषयों का भी निरूपण किया गया है। योगसार. इस ग्रन्थ के प्रणेता योगीन्द्र देव माने गये हैं। ले िन समझा जाता है कि यह ग्रन्थ विक्रम की बारहवीं शती के पूर्व ही लिखा गया है इस ग्रन्थ में कुल १०८ प्राकृत पद्य है जिनमें पाँच प्रस्तावों के विधान है, यथा १- यथावस्थित देवस्वरूपोपदेश, २- तत्त्वसार धर्मोपदेश ३साम्योपदेश, ४- सत्वोपदेश और ५. भावशुद्धिजनकोपदेश । यशोविजयकृत ग्रन्थ यशोविजय का जैन साहित्य में बहुत बड़ा योगदान रहा है । इनका समय ई० १८ वीं शताब्दी है । इन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् योगसार बत्तीसी, पातञ्जल योगसूत्रवृत्ति, योगविशिका की टीका तथा योगदृष्टिसज्झाय की रचना की है। वही भाग ३ ... श्री यशोविजय गणि, प्रकाशक, केशरबाई ज्ञान भण्डार, स्थानक, जाननगर।
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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