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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (१०६)
१- दोघंकाल, २- निरन्तर और ३- सत्कार .... वैराग्य, ज्ञान सम्पदा, असंगता, चित्त की स्थिकी उर्मियों को सहना ये पाँच ध्यान की सिद्धि इसके सम्बन्ध में एक मत नहीं मिलता है ।
के तीन हेतु बताये हैं सोमदेव सूरि ने रता, भूख प्यास आदि के हेतु बतलाये हैं | सम्यग्दर्शन
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र
इन रत्नत्रय की शुद्धि किये बिना ध्यान होना असाध्य है । 'दर्शन' शब्द जैनागमों में दो अर्थो में प्रयुक्त हुआ है । इसका एक अर्थ है 'देखना ' अर्थात् अनाकार ज्ञान* और दूसरा अर्थ 'श्रद्धा' के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है । 4 सही दर्शन सही ज्ञान तक और सही ज्ञान सही आचरण तक ले जाता है । सम्यग्दर्शन ही धार्मिक क्षेत्र से अपेक्षित हैं । आप्तवचनों तथा तत्वों पर श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है 1 आचाय शुभचन्द्र ने कहा है कि 'जो जीव पदार्थों का श्रद्धान करता है वही नियम से सम्यग्दर्शन है । जीव, अजीव, आस्तव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष के प्रति विश्वास ही सम्यक्त्व है। +
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पातञ्जल योगसूत्र १/१४
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X वैराग्यं ज्ञानसंपत्तिरसंग: स्थिरचित्तता ।
उर्मि - स्मय सहत्वं च पंच योगस्य हेतवः ॥ [ यशस्तिलक ८ / ४० ] * साकारं ज्ञानं अनाकारं दर्शनं । [तत्वार्थ राजवार्तिक पृ० ८६ ) 4 (क) उत्तराध्ययन सूत्र २८ / १५
[ख] स्थानाङ्ग वृत्ति (अभय देव सूरि ) स्थान १
(ग) तत्वार्थं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् (तत्वार्थ सूत्र १ / २ ) (घ) नियमसार - तात्पर्यवृत्ति ३
समयसार १४
यज्जीवादिपदार्थानां श्रद्धानं तद्धि दर्शनम् ।
निसर्गेणाधिगत्या वा तद्भव्यस्यैव जायते ।। (ज्ञानार्णव ६ / ६ ] + तत्वार्थ सूत्र १/४,
(ख) रुचिजिनोक्त त्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते (योगशास्त्र १ / १७ ]
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