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________________ जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (११५) हैं । अन्य ध्यान से सम्बन्धित ग्रन्थों में भी आतं ध्यान चार भेदों वाला माना गया है ।.... १- इष्ट वियोग आर्तध्यान धा, ऐश्वयं, स्त्री-पुरुष, कुटुम्ब, मित्र आदि सांसारिक काम भोगों के पदार्थो से विमुक्त होने पर हाय तौबा करते हए उनके प्रति गमगीन बने रहना यही आर्त ध्यान का प्रथम भेद इष्ट वियोग आत्तंध्यान कहलाता है ।→ अर्थात् अपनी प्यारी वस्तु के नष्ट होने पर उसकी फिर से प्राप्ति के लिए जो दुःख होता है वह इष्ट वियोग आर्तध्यान कहलाता है।x २- अनिष्ट संयोग आर्तध्यान अनिष्ट ओर अप्रिय वस्तुओं के संयोग होने पर जो संक्लेश होता है वह अनिष्ट संयोगज आत्तं ध्यान है अर्थात् यह मेरा शत्रु है मुझे कोई हानि न पहुँचा दे इससे कैसे छुटकारा मिले इस सम्बन्ध में सोचते हए जो दुःख या क्लेश जीव को उत्पन्न होता है, या अग्नि, सर्प, सिंह, जल आदि के निमित जो क्लेश होता है वही दूसरा आत्तं ध्यान अर्थात् अनिष्ट संयोग आतध्यान कहलाता x प्रिय भ्रशेऽप्रिय प्राप्तौ निदाने वेदनोदये । आत कषाय संयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः ।। (तत्वार्थसार ३६) ... [क) विप्रयोगे मनोज्ञस्य संप्रयोगाय संततम् । संयोगे चामनोज्ञस्य तद्वियोगाय या स्मृतिः ॥ (ध्यान स्तव ६) [ख] मूलाचार प्रदीप २००३-२००५ (ग) ध्यान शतक ६ + विपरीतं मनोज्ञस्य । (तत्वार्थ सूत्र ६/३१) x (क) मनोज्ञवस्तुविध्वंसे मनस्तत्संगमाथिभिः । क्लिश्यते यत्तदेतत्स्या द्वितीयात्तस्य लक्षणम् ।। (ज्ञानार्णव २५/३१) (ख] सर्वार्थसिद्धि ६/३१/४४७/१ [ग) चारित्रसार १६९/१
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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