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ध्यान के भेद (११४)
में होने वाली संक्लिष्ट परिणति का नाम आत्तं ध्यान है । A दुख के निमित्त से या दुख में होने वाली दशा या परिणति को आत ध्यान कहा गया है। इसी प्रकार राग भाव से जो उन्मत्तता होती है+, वह केवल अज्ञान के कारण ही होती हैं जिसके फलस्वरूप जोव उस अवांछनीय वस्तु के प्राप्ति-अप्राप्ति के प्रति होता है हैं वही आत्तं ध्यान है । आर्त ध्यान सामान्यत: तो दुख क्लेशरूप परिणाम है। आर्तध्यान के भेद
आतध्यान के चार प्रकार हैA १- इष्टवियोग आत ध्यान, २- अनिष्ट सयोग आर्तध्यान, ३- प्रतिकूल वेदना आतध्यान, ४निदान आतध्यान । तत्वार्थसत्र में भी आतध्यान के चार प्रकार बतलाये हैं ।* अमृत चन्द्र सूरि ने भी चार प्रकारों को माना A ऋते भवमथात स्यादसद्धयानं शरीरिणाम् । दिग्मोहोन्मततातुल्यमविद्यावासनावशात् ।।
(ज्ञानार्णव २५/२३) = अमणुन्नसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओग सतिसमण्णागते यावि भवति । (स्थानाड्.ग ४-२४७) + समवायांग ४
दशवकालिक अध्ययन, १ = कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७१ A (क) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० [ख) स्थाना.ग, स्थान ४ (ग) भगवती २५/७ [घ) ज्ञानार्णव २५/२४ [ङ) आवश्यक अध्ययन ४ (अ) इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतिकार भोगनिदानेषु वाञ्छारूपं
चतुर्विध आतंध्यानम् । (द्रव्यसंग्रह टीका ४८/२०१) [आ) भगवती आराधना, विजयोदया टी०, १६६७ * तत्वार्थ सूत्र ६/३०