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( ११३ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
को मिलते हैं १- प्रशस्त, २- अप्रशस्त । यहाँ चारों भेदों का भी समर्थन किया गया है। श्री अमतचन्द्र सूरि ने भी ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन किया है लेकिन उन्होंने अन्त के दो ध्यानों को तप का अड्.ग माना है।+ इष्टोपदेश में भी ध्यान के चार प्रकारों का उल्लेख करते हए पूज्यपादाचार्य ने शरू के दो ध्यानों का परित्याग एवं अन्त के दो ध्यानों की उपासना करने के लिए कहा है... । स्वामि कार्तिकेय ने भी चारों प्रकारों का वर्णन, किया है। x इन सबके अतिरिक्त ध्यान के चौबीस भेदों का भी उल्लेख मिलता है,* जिनमें बारह ध्यान क्रमशः ध्यान, शून्य, कला, ज्योति, बिन्दु, नाद, तारा, लय, मात्रा, पद और सिद्धि हैं, तथा इन ध्यानों के साथ 'परम' पद लगाने से ध्यान के अन्य भेद बनते हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर पता चलता है कि ध्यान के चार भेद ही सर्व सम्मति से अभीष्ट हैं। आर्तध्यानआर्तध्यान शब्द का अर्थ
चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आतध्यान कहा गया है। 'ऋते भवम् आतम्' इस निरुक्ति के अनुसार दुःख
आतरौद्र विकल्पेन दुर्व्यानं देहिनां द्विधा । द्विधा प्रशस्तमत्युक्तं धर्म शुक्लविकल्पतः॥ (ज्ञानार्णव २५/२०] + आतरौद्र च धम्यं च शक्लं चेति चतुर्विधम ।
ध्यानमुक्तं परं तत्र तपोऽड्.गमुभयं भवेत् ॥ (तत्वार्थसार ३५/६) ... तद्ध्यानं रौद्रमात्तं वा यदैहिक फलार्थिनां ।
तस्मादेतत्परित्यज्य धर्म्य शुक्लमुपास्यताम् ।। (इष्टोपदेश २०) x असुहं अट्ट रउद्द, धम्म सुक्कं च सुहयरं होदि । अट्ट तिव्वकषायं, तिव्वतमकसायदो रुदं।। (श्रीकार्तिकेयानुप्रेक्षा४६६) * सुन्न-कुल-जोइ-बिंदु-नादो-तारो-लओ-लवो मत्ता।
पय-सिद्धि परमजुया झाणाई हुति चउबीसं ॥ (नमस्कार स्वाध्याय (प्राकृत) पृ० २२५]