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ध्यान के भेद (११२) है, ऐसा हो सकता है कि वहाँ ता का प्रकरण होने के कारण इन दो अप्रशस्त अर्थात् दुानों का वर्णन नहीं किया गया होगा किन्तु तप का प्रकरण होने पर भी कई ग्रन्थों में आत, रौद्र, धर्म एवं शक्ल इन चारों प्रकारों का वर्णन प्राप्त होता है ।.... आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र में धयं एवं शुक्ल इन दो भेदों को ही निर्दिष्ट किया है।x
. इधर कुछ अर्वाचीन ध्यान साहित्य में ध्यान के इन चार भेदों के अतिरिक्त पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये अन्य चार भेद भी उपलब्ध होते हैं किन्तु इनका स्त्रोत कहाँ है और ये किस प्रकार से विकसित हुए यह पता नहीं लेकिन इनका वर्णन या निर्देश मुलाचार, भगवती आराधना, ध्यान शतक, स्थानाड़.ग, समवायांग
और आदि पुराण आदि ग्रन्थों में कहीं नहीं हैं। परन्तु आचार्य देवसेन द्वारा विरचित भावसंग्रह एवं योगीन्दु के योगसार में इन नामों का उल्लेख प्राप्त होता है । ____आचार्य अमितगतिने भी ध्यान के आर्त आदि चार प्रकारों का वर्णन किया है। A नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने ध्यान के आर्त आदि किसी भी भेद का वर्णन न करके वहाँ परमेष्ठिवाचक अनेक पदों का जो वर्णन किया है उससे पदस्थ, पण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का संकेत मिलता हैं । ज्ञानार्णव के अनुसार भी ध्यान के दो भेद A झाणं दुविहं-धम्म ज्झाणं सुक्कज्झाणमिदि ।
(धवला पूस्तक १३, पृ०७०) .... (क] मूलाचार ५/१६७ (ख) औपपातिक सूत्र २०
(ग) तत्वार्थ सूत्र 8/२८ x योगशास्त्र ४/११५ । * (क) भावसंग्रह-पिण्डस्थ ६१६/२२, पदस्थ ६२६/२७, रूपस्थ
६२३/२५, रूपातीत ६२८/३० (ख) योगसार, गाथा ६८ A श्रावकाचार १५-२३ = वृहद् द्रव्यसंग्रह (मूल) ४६-५४