SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ परिच्छेद ध्यान के भेद - द्विविध एवं चतुविध वर्गीकरण जैन आगमों तथा अन्य ग्रन्थों में ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है । + आर्त, रौद्र, धर्म्य एवं शुक्ल । इनमें प्रथम के दो आत्तं एवं गैद्र अप्रशस्त और अन्तिम दो प्रशस्त कहे गये हैं। अप्रशस्त होने के कारण शुरू के दो ध्यान संसार के कर्मबन्ध के हेतु हैं, और अन्तिम दो प्रशस्त होने के से मुक्ति के कारण एवं कर्मो का क्षय करके मुक्ति के है | = कारण है और कारण संसार हेतु माने गये षट्खण्डागम की आचार्य वीरसेन के टीका में एक विशेषता देखी जाती है कि वहाँ और शुक्ल इन दो भेदों का वर्णन किया है रौद्र इन दो भेदों का वहाँ वर्णन नहीं दिखाई पड़ता + भगवता सूत्र २५/७, स्थाना. ग ४ / २४७, समवायांग ४, औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार सूत्र ३०, आवश्यक नियुक्ति १४५८, दशवैकालिक, अध्ययन १ अटं रुद्द धम्मं सुक्कं झाणा इ तत्थ अंताई । J निव्वाण साहणाई भवकारणमट्ट - रुद्दाइ ॥ ( ध्यान शतक, ५) आतं रौद्र धर्म्य शुक्लानि ॥ ( तत्वार्थ सूत्र ६ / २८ ) मूलाचार ५/१६७ तत्वानुशासन ३४ स्यातां तत्रातंरौद्र े द्व दुर्ध्यानेऽत्यन्तदुःखदे । धर्म शुक् ततोऽन्ये द्वं कर्म निर्मूलनक्षमे ॥ ( ज्ञानार्णव २५ / २१ ) अतं रौद्र ं च दुर्ध्यानं वर्जनीयमिदं सदा । धर्म शुक्ल च सदृष्यानमुपादेयं मुमुक्षुभिः । (तत्वानुशासन ३४) द्वारा विरचित धबला - ध्यान के केवल धर्म लेकिन आर्त और
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy