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ध्यान के भेद (११६) है ।* दुखों के कारण उत्पन्न होने पर उसके समाप्त करने की इच्छा का बार-बार संकल्प या चिन्तवन करना भी दूसरा आतं ध्यान कहलाता है ।
३- प्रतिकूल वेदना या रोगात ध्यान___ शारीरिक एवं मानसिक आधि-व्याधियों के उत्पन्न होने पर जीव उनसे मुक्त होने के लिए रात-दिन चिन्ता करता रहता है + अर्थात् शूल सिरदर्द आदि रोगों से उत्पन्न वेदना के प्रति चिन्तन करना ही रोग सम्बन्धी आतध्यान है। और साथ ही भविष्य के विषय में चिन्तन करना कि यह रोग या क्लेश स्वप्न में भी कभी न हो ऐसा सोचकर दुखी रहना ही तीसरा आर्त ध्यान कहलाता है। - यह ध्यान दुःखों का आकर और भविष्य के लिए पाप बन्ध का कारण है ।* * (क) ज्ञानार्णव २५/२५ (ख] तस्वार्थ सूत्र ६/३० (ग) तत्वार्थ वृत्ति ८६ अनिष्ट संयोगाद्वा समुजातमातध्यानम् । (घ] अमनोज्ञमप्रियं विषकष्टकशत्रु शस्त्रादि, तबाधा कारणवाद्
____ 'अमनोज्ञम्' इत्युच्यते। [सवार्थ सिद्धि ६/३०/६) A एकदुःखसाधन सद्भावे तस्य विनाशका.क्षात्पन्नविनाश संकल्पाध्यवसानं द्वितीयात्तं । (चारित्रसार १६८/५) + [क) ज्ञानार्णव २५/३२ (ख) वेदनायाश्च । (तत्वार्थ सूत्र ६/३२] तहसूलसीसरोगाइ वेयणाए विजोगपणिहाणं। तदसंपओगचिंता तप्पडियाराउल मणस्स ।। (ध्यान शतक ७] - स्वल्पानामपि रोगाणां माभूत्स्वत्नेऽपि संभवः । ममेति या नृणां चिंता स्यादात्तं तत्तृतीयकम् ।।
(ज्ञानार्णव २५/३३] * निसर्ग जनितं निंद्यं पूर्वसंस्कारयोगतः। विश्वदुःखाकरीभूत कृत्स्नपापनिबंधनम् ॥ (मूलाचार प्रदीप, षष्ठ अधिकार, २०२०)