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________________ जैनपरम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [११७) ४- निदान आत ध्यान___ जो काम भोग इस जीवन में न मिले हों उन्हें अगले जन्म में प्राप्त करने की तीव्र इच्छा या अभिलाषा रखना या शत्र से अगले जन्म में बदला लेने की लालसा रखना ही चौथा अर्थात् निदान आतध्यान होता है।.... अर्थात् आगामी विषय की प्राप्ति के लिए निरन्तर चिन्ता करना ही निदान आत्त ध्यान कहलाता संसार के अधिकतर प्राणियों को आर्तध्यान ही होता है ये जीव आत ध्यान में ही निमग्न रहते हैं। किसी को इष्ट का वियोग होने के कारण दुख है तो किसी को अनिष्ट के सम्बन्ध में कि कहीं हमारा किसी विषय में अनिष्ट से संयोग न हो जाये इसकी पीड़ा है, तो कहीं रोग की चिन्ता है, तो किन्हीं लोगों को काम भोगों की तीन लालसा ने विकल कर रखा है। ये सभी प्रकार आतध्यान संसार के कर्म बन्धन हैं ये अशुभ ध्यान हैं और सदा अच्छे पुण्यों आदि का नाश करके जीव को सांसारिक विषय भोगों की ओर उन्मुक्त करते हैं। जिससे उसका मोक्ष मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए ये आतं ध्यान सर्वदा ज्याज्य .... (क) इष्ट भोगादिसिद्धयर्थं रिपुधातार्थमेव वा।। यन्निदानं मनुष्याणां स्यादातं तस्तुरीयकं (ज्ञानार्णव २५/२६) (ख) गृहस्थस्य निदानेन विना साधोस्त्रय क्वचित् । (ध्यान स्तव १०) [ग) देविदं-चक्कवट्टित्तणाई गुण-रिद्धिपत्थणमईयं । अहमं नियाणचिंतणमण्णाणुगयमच्चंतं ।। (ध्यान,शतक ६) ४ (क) निदानं च । (तत्वार्थ सूत्र ६/३३) (ख] द्वितीयं वल्लभधनादि विषयम्, चतुर्थ तत्संपाद्यशब्दादि भोग विषय मिति भेदोऽनयोर्भावनीयः। शास्त्रान्तरे तु द्वितीयचतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम्, चतुर्थं तु तत्र निदानमुक्तम् । (स्थानाङ्ग टीका, १४७, पृ० १९६]
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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