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________________ शुक्ल ध्यान (२०५) भयभीत होता है और न ही उनका प्रतिकार करता है और न ही अपने मन को विचलित करता है। २-असम्मोह :___ शुक्ल घ्यान के समय 'पूर्व' गत सूक्ष्म पदार्थ पर एकाग्रता होती है, तो वहाँ चाहे जितना गहन पदार्थ हो तब भी चित्त मोहित नहीं होता। उस साधक की श्रद्धा अचल होती है । देव, दानव, गन्धर्व, मानव, राक्षस कोई भी उसे उसकी श्रद्धा से नहीं डिगा सकता। ३-विवेक : शक्लध्यानी साधक अपनी आत्मा को देह से बिल्कुल भिन्न देखता है। उसका तत्व विषयक विवेक बहुत गहरा होता है वह जीव को जीव और अजीव को अजीव ही मानता है। आत्मा और शरीर की पृथक्ता का उसे पूर्ण विश्वास होता है। ४-व्युत्सर्ग : शुक्लध्यानी सभी आसक्तियों से विमुक्त होता है। वह शरीर तथा उपाधि से बिल्कुल नि:संग बनकर उसका सर्वथा त्याग करता है। उसमें भोगेच्छा और यशेच्छा किंचित् मात्र भी नहीं होती। चह निरन्तर अपने वीतराग भाव में निरत रहता है और उसे बढ़ाता जाता है । जो धर्मध्यान का फल होता है वही उत्कृष्ट स्थिति में पहुंचकर शुक्ल ध्यान का फल बन जाता है । प्रारम्भ के दो शक्ल ध्यान का फल धर्म ध्यान के फल के समान है इससे विपुल शुभास्त्रव, संवर, निजंरा और दिव्य सुख निष्पन्न होते हैं । अन्तिम दो शुक्ल ध्यान तो केवलज्ञानी को होते हैं । अतः इससे तो सर्व कर्मक्षय होने के कारण फल के रूप में मोक्ष गमन होता है । = + देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे । देहोवहि वोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ ।। (वही १२) ते य विसे लेण सुभासवाद ओऽणुत्तरामरसुहं च । दोण्हं सक्काण फलं परिनिव्वाण परिल्लाणं ।। (बही ६४)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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