SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२०४]जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है । शुभ अशुभ में बदलती है और अशुभ शुभ में परिवर्तित होती रहती हैं। अतः सभी वस्तुएँ अहेयोपादेय हैं। इस अनुप्रेक्षा के चिन्तन करने से साधक की वस्तुओं की यहाँ तक कि अपने शरीर की भी आसक्ति छ ट जाती है। - इस प्रकार से ये चारों अनुप्रेक्षायें प्रथम दो शुक्ल ध्यानों से ही सम्बन्धित हैं अन्तिम दोनों शुक्ल ध्यानों में ये अनुप्रेक्षायें नहीं होती। लेश्या : शुक्ल ध्यान के पहले दो भेदों में शुवल लेश्या होती है और तीसरे भेद अर्थात् सूक्ष्मक्रिय-अनिवति शुक्ल ध्यान में परम शुवल होती है और चतुर्थ भेद समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान लेश्या से अतीत अर्थात् रहित होता है । A क्योंकि यहाँ तो योग दशा में से आगे बढ़कर सर्वथा योगनिरोध अवस्था प्राप्त हो जाती है इसे 'शैलेशी' भी कहते हैं; शुक्लध्यान के लिड्.ग : लिड्ग का अभिप्राय चिन्ह अथवा लक्षण से है। शुक्लध्यान में चित्त लगा हो ऐसे मुनि की पहचान के लिए चार लिड्ग बतलाये गये हैं। वे इस प्रकार हैं १-अव्यथ, २-असम्मोह, ३-विवेक और ४-व्युत्सर्ग :-→ १-अव्यथ : शुक्ल ध्यानी साधक मानव, देव, तिर्यंच कृत उपसर्गों और सभी प्रकार के परीषहों को समभाव से सहने में सक्षम होता है। वह न तो * आसवादारावाए तह संसारासुहाणु भावं च। भव संताण मणन्तं वत्थूणं विपरिमाणं च।। (ध्यानशतक ८८) A सुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए। ____ थिरयांजियसेलेसि लेसाईयं परमसुक्कं ॥ (ध्यानशतक ८९) म अवहाऽसंमोह-विवेग-विउ सग्गा तस्स होंति लिंगाई। लिगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो ।। (वही १०) → ध्यानशतक ६१
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy