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________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१७३) वह अग्नि मस्तक तक पहुँच जाती है और वहाँ से अग्नि की एक लकीर बाई ओर नीचे और दूसरी दाई ओर नीचे की तरफ उस साधक के आसन तक पहुँच जाती है तथा आसन के आधार पर चलकर दूसरे से मिल जाती है और इस प्रकार से एक त्रिकोण की आकृति बन जाती है। वह अग्निमण्डल "र र र र" ऐसे बीज अक्षरों से व्याप्त है तथा उसके अन्त में + सांथिया चिन्ह है।+ यह अग्नि धूम से रहित एवं अत्यधिक देदीप्यमान है और अपनी ज्वालाओं के समूह से नाभि में स्थित कमल और शरीर को भस्म करके जलाने योग्य पदार्थ के न रहने पर अपने आप शान्त हो जाती है । अर्थात् ''अतृणे पतितो बाह्न स्वयमेव प्रशाम्यति ।” अर्थात् जलाने योग्य समस्त कर्म राशि को भस्म कर अब स्वयं मात्र राख की ढेरी रह गई है। ऐसा चिन्तवन करना आग्नेयी धारणा है । मारुती धारणा : आग्नेयी धारणा द्वारा शरीर और द्रव्यकर्म, भावकर्म की समूल राख ढेरी हो गई तो उसको भी किस प्रकार से अपने से पृथक् करे इस लिए साधक वायु धारणा का चिन्तबन करता है। वह विचारता है कि आकाश में एक प्रचण्ड वायू उठी हैं। - और वह इतनी वेगवान है कि मेरु पर्वत को भी कम्पित कर रही है और देवों की सेना के समूहों को चलायमान कर रही है एवं मेघों के समूह का विघटन करती हई तेजी से बह रही है। उस जल ने सागर को भी क्षुभित कर दिया है, धीरे-धीरे वह वायू तीव्र गति से दसों दिशाओं में फैल रही है, पृथ्वी तल को विदीर्ण करके भीतर प्रवेश कर रही है और आग्नेयी धारणा द्वारा भस्म हुई राख को संचित करके अपने वेग से उड़ा कर ले जा रही है, यहाँ तक कि उसने क्षण मात्र में ही विशाल भस्म राशि + वह्नि बीजसमाक्रान्तं पर्यन्ते स्वस्तिकाडि.कतम् । ऊर्ध्व वायुपुरोद्भूतं निधूम काञ्चनप्रभम् ।। (ज्ञानार्णव ३७/१७) ज्ञानार्णव ३७/१८-१६ - विमानपथमापूर्य संचरन्तं समीरणम् । स्मरत्यविरतं योगी महावेगं महाबलम् ॥ (वही ३७/२०)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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