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(१७४) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
को उड़ा दिया। अब मात्र आत्मा ही रह जाती है और यह वायू धीरेधीरे अपने आप शान्त हो जाती है यही चिन्तबन करना मारुती धारणा है।+ वारुणी धारणा :
मारुती धारणा से साधक की भस्म-राख उड जाती है किन्तु छाया रह जाती है उसके लिए वह वारुणी धारणा का चिन्तन करता है। वह सोचता है कि आकाश काले-काले बादलों से आच्छादित है एवं चारों ओर घनघोर घटाएँ घिरी हुई हैं, बिजली चमक रही है एवं इन्द्र धनष दिखाई दे रहा है बोच-बीच में होने वाली गर्जनाओं से दिशायें कम्पित हो रही हैं एवं उन बादलों से निकलने वाली जल की अमत के समान स्वच्छ धाराओं से आकाश व्याप्त हो गया है। ये जल की धारायें हमारे ऊपर गिरती हैं और राख के ढेर की छाप को बिल्कुल धोकर स्वच्छ कर दिया है और मेरी आत्मा स्फटिक मणि के समान स्वच्छ एवं निर्मल हो गयी है ऐसा चिन्तवन करना हो वारुणी धारणा है । तत्त्वरूपवती धारणा :
इस धारणा में साधक ऐसा चिन्तन करता है कि मेरी आत्मा सप्त धातु से रहित है और पूर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल एवं निर्मल है। मेरी आत्मा सर्वज्ञ है। मेरी आत्मा अतिशय युक्त सिंहासन पर आरुढ़ है और इन्द्र, धरणेन्द्र, दानवेन्द्र, नरेन्द्र आदि से पूजित है। मेरे समस्त आठों कर्म नष्ट हो गये हैं और कर्म रहित मैं पुरुषाकार हैं एवं ज्ञानमात्र ही मेरा शरीर है। ऐसा चिन्तवन करना ही तत्त्वरूपवती धारणा है ।
+ (क) योगशास्त्र ७/१६-२० (ख) ज्ञानार्णव ३७/२१-२३ (क) सुधाम्बुप्रभवः सान्द्रबिन्दुभि मौंवितकोज्वलैः ।
वर्षन्तं तं स्मरेद्धीरः स्थूलस्थूलैनिरूतरम् ।। (ज्ञानार्णव ३७/२५) (ख) योगशास्त्र ७/२१-२३ - सप्तधातु विनिमुक्तं पूर्णचन्द्र मलत्विषम्। सर्वज्ञ कल्पमात्मानं तत: स्मरति संयमी ॥ (ज्ञानार्णव ३७/२८-३०) योगशास्त्र ७/२३-२५