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________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१७५) इस प्रकार पाँचों धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने वाले ध्याता को मंत्र, माया, शक्ति, जादू आदि से कोई नुकसान नहीं होता है। प्रथम धारणा से साधक अपने मन को स्थिर करता है, दूसरी से शरीर कर्म को नष्ट करता है, और तीसरी से शरीर के कर्मों के सम्बन्ध को भिन्न देखता है, चौथी धारणा से शेष कर्म का नष्ट होना देखता है और पांचवीं धारणा से शरीर एवं कर्म से रहित शुद्ध आत्मा को देखता है। इस प्रकार से वह इस ध्यान के अभ्यास से मन एवं चित्त को एकाग्र करके शुवल ध्यान में पहुँचने की स्थिति प्राप्त कर लेता है। पदस्थ ध्यान : "पदस्थ मन्त्र वाक्यस्थं" अर्थात् मन्त्र वाक्यों में जो स्थित है वह "पदस्थ ध्यान' है।+ इस ध्यान का मुख्य आलम्बन "शब्द" है। इस ध्यान के द्वारा साधक अपने को एक ही केन्द्र बिन्दु पर केन्द्रित करते हुए मन को अन्य विषयों से पराभूत कर लेता है और केवल सूक्ष्म वस्तु का ही चिन्तवन करता है । ज्ञानाणंव में कहा गया है कि “पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो अनुष्ठान या चिन्तवन किया जाता है वह 'पदस्थ ध्यान'' है । यही बात योगशास्त्र में भी कही गयी है। = एक अक्षर आदि को लेकर अनेक प्रकार के पंच परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्र पदों का उच्चारण जिस ध्यान में किया जाता है वह "पदस्थ ध्यान" कहलाता है।* + (क) द्रव्यसंग्रह, टीका ४८/२०५ (ख) भावपाहुड़, टीका, ८६/२३६ (ग) परमात्म प्रकाश, टीका, १/६/६ पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभियंद्विधीयते । तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः ।। (ज्ञानार्णव ३८/१) = योगशास्त्र ८/१ * (क) ज झाइज्जइ उच्चरिऊण परमेट्ठिमंतपयममलं । एयक्खरादि विविहं पयत्थ झाणं मुणेयव्वं ।। - (वसुनन्दि श्रावकाचार ४६४) (ख) गुणभद्र श्रावकाचार २३२
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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