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________________ (१७६)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन पदस्थ ध्यान करने वाला योगी सबसे पहले वर्ण मातका का ध्यान करता है, क्योंकि वर्णमाला सब मन्त्रों की जननी होने के कारण "वर्ण मातका" कहलाती है । अनादि सिद्धान्त में जो वर्णमातका अर्थात् अकारादि स्वर और ककरादि व्यञ्जन से ही शब्दों की उत्पत्ति पदस्थ ध्यान पाँच प्रकार से निष्पन्न किया जाता है : अक्षर ध्यान :-इसके अन्तर्गत नाभि-कमल, हृदय कमल और मुख कमल से शरीर के इन तीन भागों की परिकल्पना की जाती है। इसमें नाभि कमल में साधक यह चिन्तवन करता है कि मेरे नाभि कमल में सोलह दल वाला एक कमल है, जिसकी प्रत्येक पंखुड़ी पर 'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ल, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:" सोलह अक्षर लिखे हुए हैं। = वह इन वर्गों पर मन को टिकाता है, जिससे उसका चित्त एकाग्र हो जाता है और ज्ञान तन्तुओं के सक्रिय होने से बुद्धि कौशल जागृत होता है : हृदय कमल में वह सोचता है कि हृदय स्थल पर चौबीस पाँखड़ियों वाला एक कमल है, उस कमल के मध्य एक काणिका भी है, इन चौबीस दलों एवं कणिका पर क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ,ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, ये पच्चीस वर्ण लिखे हुए हैं। * इस ध्यान से प्रज्ञा शक्ति जागत होती है। मुख कमल में वह ध्यान करता है कि मुखमण्डल के ऊपर ८ पत्रों वाला एक कमल बना हुआ है जिसमें प्रत्येक पत्रपर य, र, ल, व, श, ष, सह... - ध्यायेदनादिसिद्धान्त प्रसिद्धां दर्णमातृकाम् । निःशेषशब्द विन्यासजन्मभूमि जगन्नताम् ।। (ज्ञानार्णव ३८/२) = द्विगुणाष्ट दलाम्भोजे नाभि मण्डलवतिनि ।। भ्रमन्तीं चिन्तयेद्धयानी प्रतिपत्र स्वरावलीम् ।। (वही ३८/३) * चतुर्विंशतिपत्राढ्य हृदि कञ्ज सकणिकम् । तत्र वर्णानिमान्ध्यायेत्संयमी पञ्चविंशतिम् ।। (वही ३८/४) .... ततो वदनराजीवे पत्राष्टकविभूषिते । परं वर्णाष्टकं ध्यायेत्सञ्चरन्तं प्रदक्षिणम् ॥ (वही ३८/५) तत्त्वानुशासन १०५-१०६
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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