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(१७२)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
करता है । इस धारणा में साधक ऐसा चिन्तवन करे कि मेरे नाभि मण्डल में सोलह पांखड़ियों से सुशोभित एक मनोहर कमल है ।+ उस कमल की सोलह पांखुड़ियों में क्रम में "अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ल, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ." ये सोलह बीजाक्षर हैं तथा उस कमल की कणिका पर "ह" महामन्त्र लिखा हना या स्थापित है इस महामन्त्र स्वरूप "ह" के रेफ से धीरे-धारे धुआँ की शिखा निकल रही है उसके पश्चात अग्नि के स्फूलिड ग निकल रहे हैं । ये पंक्तिबद्ध चिनगारियाँ क्रमशः शनैः-शनैः अग्नि ज्वाला के रूप में परिणमित हो रही है और फिर वह अग्नि प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है और हृदयस्थ कमल को दग्ध कर देती है। -
जिस कर्म चक्र को रेफ की अग्नि जलाती है वह हृदस्थ कमल अधोमुख वाला और आठ पत्रों का होता है । इसके आठों पत्रों पर क्रमशः ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र
और अन्तराय नामक आठ कर्म आत्मा को घेरे हुए हैं । इस कमल के आठों दलों को कुम्भक पवन के बल से खोलकर फैलाकर उक्त "" बीनाक्षर के रेफ से उत्पन्न हई प्रबल अग्नि से भस्म किया जाता है। + ततोऽसौ निश्चलाभ्यासात्कमल नाभिमण्डले। ___ स्मरत्यतिमनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् ॥ (ज्ञानार्णव ३७/१०) (क) नाभौषोडश विद्यात्तद्वयष्टासु दलमध्यगं ।
हकारं बिन्दुसंयुक्तं रेफाक्रान्तं प्रचिन्तयेत्।। (विद्यानुशासन ३/७८) (ख) प्रतिपत्र समासीन स्वरमालाविराजितम् ।
कणिकायां महामन्त्रं विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् ॥(ज्ञानार्णव३७/११) - (क) योगशास्त्र ७/१३-१८
(ख) ज्ञानार्णव ३७/१३-१४
(ग) तत्त्वानुशासन १८४ A (क) हृद्यष्टकर्मनिर्माणं द्विचतुः पत्र मम्बुजं ।
मुकुलीभूतमात्मानमावृत्यावस्थितं स्मरेत् ।। कनफेन तदम्भोजपत्राणि विकचयय च । निर्दहेन्नाभिपंकेज बीजबिन्दु-शिखाग्निना ॥ (विद्यानुशासन
३/७६-८०) (ख) तदष्टकमंनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् ।
दहत्येव महामन्त्र ध्यानोत्थप्रबलोऽनलः ।। (ज्ञानार्णव ३७/१५)