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________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण (१७१) तत्त्वानुशासन में भी इन पाँच में से तीन धारणायें मिलती हैं वहाँ श्वसना, आग्नेयी और वारुणी के पर्याय रूप में क्रमशः मारुती, तेजसी और आप्या के नाम से उपलब्ध है । + ऐसा लगता है कि आवार्य शुभचन्द्र ने तत्त्वानशासन से इन तीन धारणाओं को लेकर और उनमें पार्थिवी एवं तत्त्वरूपवती इन दो धारणाओं को मिलाकर उन्हें उसी क्रम में व्यवस्थित कर दिया। पार्थिवी धारणा : किसी भी आसन से बैठकर साधक पार्थिवी धारणा का चिन्तन करता है। वह मेरुदण्ड को सीधा करके नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि को जमाकर ध्यान करता है कि मध्यलोक के बराबर नि:शब्द, कल्लोल रहित तथा हार और बफ के समान सफेद समुद्र है उसमें जम्बूद्वीप के बराबर लाख योजन वाला तथा हजार पंखड़ी वाला कमल है जो सोने के समान पीला है और उसके मध्य केसर है जो बहुत अधिक मात्रा में सुशोभित है । उन केसरों में स्फुरायमान करने वाली देदीप्यमान प्रभा से युक्त सुवर्णाचल के समान एक ऊँची कणिका है, उस कणिका पर चन्द्रमा के समान श्वेत रंग का एक ऊँचा सिंहासन है और उस आसन पर मेरी आत्मा विराजमान है । साथ ही साथ यह भी विचार करे कि मेरी आत्मा रागद्वेषादि से. रहित है और समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ है । इन बड़ी चाजों को ध्यान में लाने के बाद सूक्ष्म वस्तु में ध्यान केन्द्रित करने से समस्त चिन्ताओं पर रोक लग जाती है । आग्नेयो धारणा : पाथिवी धारणा के पश्चात् साधक आग्नेयी धारणा की साधना + तत्राऽऽदौ पिण्ड सिद्धयर्थं निर्मलीकरणाय च । मारुतीं तैजसीमाप्यां विदध्याद्धारणांक्रमात् । [तत्वानुशासन १८३] (क) ज्ञानार्णव ३७/४-६ . (ख) योगशास्त्र ७/१०-१२ (ग) योगप्रदीप २०/४०५-८
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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