________________
( १७० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन चिन्तवन करना ही "पिण्डस्थ ध्यान है | 4 पण्ड" अर्थात् शरीर और उस शरीर में रहने वाली आत्मा है । अतः पिण्ड सहित या शरीर सहित आत्मा का ध्यान पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है । भाव संग्रह में अपने शरीर में स्थित अच्छे गुण वाले आत्मप्रदेशों के समूह के चिन्तन करने को पिण्डस्थ ध्यान कहा गया है । * जबकि ज्ञानसार में अपने नाभि के मध्य स्थित अरहन्त के स्वरूप के विचार करने को पिण्डस्थ ध्यान कहा गया है । श्वेत किरणों से विस्फुरित होते हुए एवं अष्ट महाप्रतिहार्यों से परिवृत्त जो निजरूप है उसका ध्यान भी पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है | X
ज्ञानार्णव में इस ध्यान का विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य ने इस ध्यान के लिए पाँच धारणाओं का निर्देश दिया है जो इस प्रकार से हैं - ९ - पार्थिवी धारणा, २ - आग्नेयी धारणा, ३- श्वसना धारणा, ४ - वारुणी धारणा तथा ५-तस्वरूपवती धारणा ।... योगशास्त्र में भी इन्हीं पाँचों धारणाओं का वर्णन किया गया है । →
44
4 पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । (द्रव्यसंग्रह टी. ४८/२०५)
* भावसंग्रह ६२२
+ निजनाभिकमलमध्ये परिस्थितं विस्फुरद्रवितेनः । ध्यायते अर्हद्रूपं ध्यानं तत् मन्यस्व पिण्डस्थं ॥
ध्यायत निजकरमध्ये भालतले हृदय कन्ददेशे ।
निजरूपं रवितेजः पिण्डस्थं मन्यस्व ध्यानमिदं ।। (ज्ञानसार १६ - २० ) X ( क ) पलुकिन कोउदोलुसहजं । वेलगुवशनिकान्तदेसेव विवाकृतितं । नोलगोल तोलगि बेलगुव । बेलगं निजमागि कंडोडदु पिण्डस्थं । । ( शास्त्रसार समुच्चय २०२ )
...
(ख) सियकिरणवित्पुरतं अट्ठमहापाडिहेरपरियरियं ।
झाइज्जइ जं निययं पिण्डस्थं जाण तं झाणं ॥ [ वसुनन्दिश्रावकाचार ४५६)
पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसमा वाथ वारुणी ।
तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता यथा क्रमम् ।। (ज्ञानार्णव ३७ / ३) → पार्थिवी स्याद्याग्नेयी मारुती वारुणी तथा ।
तत्व भूः पंचमी चेति पिण्डस्थे पंच धारणा || (योगशास्त्र ७ / ६ )