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धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६९) आचार्य वसूनन्दी ने भी इसी क्रम से पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत का उल्लेख किया है। + योगसार में केवल इनके नामों का उल्लेख किया है लेकिन विस्तार से वर्णन नहीं किया गया है । श्रावकाचार में आर्त आदि चारों भेदों का विवेचन करके, क्रम से फिर इस ध्यान के भेदों का वर्णन किया है वहाँ पदस्थ ध्यान को पिण्डस्थ से पहले रखा गया है। इसके अतिरिक्त कई अन्य ग्रन्थों में भी इन चारों ध्येय के भेदों का वर्णन मिलता है।- ये चात अलग है कि इनके क्रम में थोडी बहत फेरबदल की गयी है। नंत्र शास्त्र में पिण्ड, पद, रूप और रूपातीत इन चारों भेदों का वर्णन किया गया है । - दोनों के अर्थ भेद को छोड़कर देखा जाये तो लगता है कि जैन साहित्य का वर्गीकरण तंत्र शास्त्र से प्रभावित है। पिण्डस्थ ध्यान :
"पिण्डस्थ स्वात्मचिन्तनम्" अर्थात् आत्म स्वरूप या निजात्मा का + श्रावकाचार ४५६
जो पिंडत्थ पयत्थु बुह स्वस्थ वि जिण उत्तु । रूवातीत मूणेहि लह जिमि परु होहि पवित्त ।। (योगसार १८) - (क) पदस्थमन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् ।
रूपस्थं सर्वचिद्रूप रूपातीतं निरूजनम् ।। (द्रव्य संग्रह टी.
४८/२०५/३) (ख) पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् ।
चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीव भास्करैः ॥ (शास्त्रसार
समुच्चय ३५) (ग) उक्मेव पुनर्देव सर्व ध्यानं चतुर्विधम।
पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवजितम् ॥ (ध्यान
स्तव २४) (घ) भावपाड़ टीका ८६/२३६/१३ .. पिण्ड, पदं तथा रूपं, रूपातीतं चतुष्टयम्।
यो वा सम्यग् विजानाति, स गुरू: परिकीर्तितः ।। पिण्डं कुण्डलिनी-शक्तिः, पदं हंसः प्रकीर्तितः। रूपं बिन्दुरिति ज्ञेयं, रूपातीतं निरंजनम् ।। (नवचक्रेश्वरतंत्र)