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[ १६८ ] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
चिन्तवन करना आवश्यक माना गया है। आलम्बन का पर्याय " ध्येय " माना जाता है । इसी ध्येय को चार भेदों वाला कहा गया है - १ - पिण्डस्थ, २- पदस्थ, ३ - रूपस्थ और ४- रूपातीत । = इन भेदों के सम्बन्ध में कुछ मतभेद पाये जाते हैं क्योंकि इस वर्गीकरण का वर्णन प्राचीन साहित्य, जैसे मूलाचार, भगवती आराधना, तत्त्वार्थसूत्र, स्थानाड.ग. हरिवंशपुराण और आदिपुराण आदि ग्रन्थों में नहीं किया गया है, फिर इनका स्रोत कहाँ से है, यह बात अभी तक पता नहीं चली फिर भी देवसेन विरचित सम्भवतः वि० १०वीं शती में लिखित भावसंग्रह में यह सबसे पहले उल्लिखित है इससे पूर्व के किसी भी ग्रन्थ में इस वर्गीकरण का उल्लेख नहीं मिलता है ।... ज्ञानसार में एवं योगसार में भी इसका वर्णन मिलता है लेकिन ज्ञानसार में रुपातीत का निर्देश नहीं किया है । वहां केवल पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ काही वर्णन किया गया है । X ध्यान में चूँकि ध्याता के शरीर में स्थित ही ध्येय के अर्थ का विचार किया जाता है, इसलिए बहुत से आचार्य उसे पिण्डस्थ ध्येय कहते हैं ऐसा विचार तत्वानुशासन में प्रगट किया गया है । * ज्ञानार्णव में भी इन चारों भेदों का वर्णन किया गया है । A
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(क) स्थूले वा यदि वा सूक्ष्मे साकारे वा निराकृते ।
ध्यानं ध्यायेत स्थिरं चित्तं एक प्रत्यय संगते ।। ( योगप्रदीप १३६ ) (ख) अलक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धात स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत् ।
सालम्बाच्च निरालम्बं तत्ववित्तत्त्व मञ्जसा ।। (ज्ञानार्णव ३३/४) पिण्डस्थं च पदस्थं रूपस्थं रूपवर्जितम् ।
चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ! | (योगशास्त्र १८ )
(क) ध्यानशतक, प्रस्तावना, पृ० १८
(ख) भाव संग्रह ६१६
X ज्ञानसार १८-२८
* ध्यातुः पिण्डे स्थितश्चैव ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः ।
ध्येयं पिण्डस्थमित्य' हरतएव च केचन ॥ ( लत्त्वानुशासन १३४ ) 4 पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् ।
चतुर्धा घ्या माम्नातं भव्यराजीव भास्करैः ॥ [ ज्ञानार्णव ३७ /१]