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भारतीय परम्परा में ध्यान (२७) इस योग में हठयोग तथा तन्त्रयोग के समान ही गुरु की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि गुरु की कृपा से ही संसार के बन्धन तोड़कर शिव की प्राप्ति सम्भव है + इस सम्प्रदाय में कुण्डलिनी शक्ति के महत्व को समझाते हुए कहा है कि हठयोगी प्राणवायु का निरोध करके कुण्डलिनी को उबुद्ध करता है। जब कुण्डलिनी उद्बुद्ध हो जाती है तो प्राण स्थिर हो जाता है और साधक शून्यपथ से निरन्तर उस अनाहत ध्वनि को सुनने लगता है जो अखण्ड रूप से सारे ब्रह्माण्ड में ध्वनित हो रही है। प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी का उदबोध सुकर हो जाता है । कुण्डलिनी के जागृत होने पर शक्ति जब उबद्ध होकर शिव के साथ समरस हो जाती है तो इसी को पिण्ड ब्रह्माण्डक्य भी कहते हैं, इसमें योगियों को परम काम्य कैवल्य अवस्था वाली सहज-समाधि प्राप्त होती है, जिससे बढ़कर आनन्द और नहीं है। यह सब गुरु की कृपा से होता है ज्ञान, वैराग्य एवं वेद पाठादि से नहीं 1- इस प्रकार + (क] एवं विधु गुरो शब्दात् सर्वं चिन्ताविवजितः। ___ स्थित्वा मनोहरे देशे योगमेव समभ्यसेत् । (अमनस्कयोग १५) (ख) सिद्ध सिद्धांत पद्धति एण्ड अदर वर्स आफ नाथ योगीज, पृ० ५,
५४-८० मुलकन्दोद्योतो वायुः सोमसूर्य पथोद्भवः । शक्तयाधारस्थितो याति ब्रह्मदण्डक भेदकः ।। मूलकन्दे तुव्यासक्ति कुण्डलाकाररूपिणी। उद्गमावर्त बातोऽयं प्राण इत्युच्यते बुधैः । कंददण्डेन चोदण्डै भ्रमिता या भुज.गिनी । मूर्छिता सा शिवं वेत्ति प्राणैरेवं व्यवस्थिता ।।(अमरौघशासनम्, पृ.११) -- (क) उद्घाटयेत कपाटं तु यथा कुचिकया हठात् ।
कुण्डलिन्या ततो योगी मोक्ष द्वारं प्रभेदयेत् ॥ गौरक्ष पद्धति १४८) (ख) बुष्टिस्तु कुण्डली ख्याता सर्वभागवता हि सा।
बहुधा स्थूलरूपा च लोकानां प्रत्ययात्मिका । अपरा सवंगा सूक्ष्मा व्याप्तिव्यापक वर्जिता । तस्या भेदं न जानाति मोहितः प्रत्ययेनतु ।। ततः सूक्ष्मा परासंवित् मध्य शक्तिमहेश्वरी ॥ (सिद्ध सिद्धांत संग्रह ४/३०-३२)