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(८६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
एक-एक अनुप्रेक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट । कया है। साधक अनित्यानप्रेक्षा में सांसारिक सम्बन्धों की अनित्यता का अनभव कर आसक्ति को विजित करता है।+ शभचन्द्र ने अनित्य भावना के सम्बन्ध में स्त्री, यौवन, धन, परिजन, पुत्र और यह शरीर सभी गान्धर्वनगर एवं विद्य त् की तरह चंचल है ऐसा कहा है ।
बौद्ध साहित्य के अन्तर्गत समस्त अनुप्रेक्षाओं में जितना सुन्दर और विस्तत विवेचन अनित्य अनप्रेक्षा का मिलता हैं उतना अन्य का नहीं । जैन साहित्य में भी अनित्य अनप्रक्षा का उतना विस्तृत विवेचन नहीं है । बौद्ध साहित्य में उसके विस्तार का कारण क्षणिकवाद है। धम्मपद में इसका वर्णन इस प्रकार से किया गया है
सव्वे संखारा अनिच्चा ति यदा पञ्चाय पस्सति ।
अथ निबिन्दती दुक्खे एस मग्गो विसुद्धिया ॥ २- अशरण अनुप्रेक्षा___ सामान्य मनुष्य प्रतिदिन अपने सामने संसार और संसारी लोगों की प्रवृत्तियों को देखता है कि लोग एक दूसरे के दुख, पीड़ा एवं कष्ट को बाँट नहीं सकते लेकिन फिर भी एक दूसरे के प्रति मोह पाश में फंसे रहते है। जब किसी की मृत्यु आती है तो कोई भी उसे काल के मुह से बचा नहीं सकता क्योंकि काल दुनिवार है और सभी प्राणी काल के वश में हैं । यहाँ सभी अपनी रक्षा के लिए सोचते हैं। मानव जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधियों से घिरा रहता है यहाँ इसका कोई भी शरण नहीं है, काल किसी का इन्तजार नहीं करता और विद्या,
तत्त्वार्थ सूत्र टीका ६/७ [क] ज्ञानार्णवः, सर्ग २, श्लोक ४७ (ख] परमट्ठण. दु आदा देवासुर मणुवरायविविहेहिं ।
वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चितये णिच्चं ॥ (बारस
अणुवेक्खा ७) ... विद्या मत्र महौषधिसेवां, सृजतुवशीकृत-देवां।।
रसतु रसायनमुपचयकरणं, तदपि न मुचति मरणम् ॥ [शान्तसुधारस २/४)