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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८८) नप्रेक्षा--, शान्त सुधारस A, मनोऽनुशासन, वृहद्रव्यसंग्रहX, ज्ञानाणव... आदि ग्रन्थों में भी है। यद्यपि इनके क्रम में कहीं-कहीं भेद है परन्तु प्रकारों में अन्तर नहीं है । अनित्य अनुप्रक्षा
शरीर, इन्द्रिय, विषय और भोगोपभोग ये जितने भी पदार्थ हैं सब जल के बुलबुलों के समान शीघ्र समाप्त होने वाले फेन के समान है, किन्तु अज्ञानी व्यक्ति इनके प्रति मोह में पड़कर इनको नित्य मान बैठता है जबकि ये सब अनित्य हो हैं। यह शरीर अध्र व, अनित्य और अशाश्वत है।→ ज्ञानार्णव में भी कहा है
ये चात्र जगतीमध्ये पदार्थाश्चेतनेतराः ।। ते ते मुनिभिरुदिदष्टाः प्रतिक्षणविनश्वराः ।। [१]
मानव को अपने विषय में मोह को त्याग कर ये जान लेना चाहिये कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए इस संसार को अनित्य, अस्थिर, नाशवान समझना और ऐसा ही चिन्तवन करना अनित्यानप्रेक्षा है। (२] जब वह इस शाश्वत सत्य को समझ जाता है तब जीव का अपने शरीर के प्रति ममत्व विनष्ट हो जाता हैं। अन्य ग्रन्थों में भी अनेक स्थलों पर अनित्यता का वर्णन प्राप्त होता है। (३) आचार्य उमास्वाति नेभी - स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा २-३ A शान्तसुधारस १/७-८ * मनोऽनुशासन ३/२२ x वृहद्रव्यसंग्रह टीका ३५ ... ज्ञानार्णवः सर्ग २ श्लोक ७
→ आचाराड्.ग सूत्र ५/२/५०६ (१] ज्ञानार्णवः, सर्ग २, श्लोक ४६ (२) उत्तराध्ययन १६/१३ (३] औपपातिक सूत्र २३ [ख] दशवैकालिक सूत्र चूलिका १, १६ (ग) उत्तराध्ययन १८/११-१३ (घ) सर्वार्थसिद्धि ६/४/४१३