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(८७) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
से
का प्रयोग स्थान पर भावना शब्द का लेकर दशवेकालिक सूत्र मिलता है । आगम ग्रन्थों
है । इसको व्याख्यापित करने के लिए 'चिन्तनिका' शब्द किया है ।... सूत्र कृतांग में अनुप्रेक्षा के प्रयोग किया गया है । आचाराड्ग सूत्र तक अनेक ग्रन्थों में इसका वर्णन यत्र तत्र में अनुप्रेक्षाओं का जो वणन है वह गद्य और पद्य दोनों रूप में है । परन्तु उत्तरकालीन युग में इस विषय पर विस्तृत पद्य साहित्य रचा गया है । संस्कृत में इस विषय पर सर्वप्रथम ग्रन्थ महापुराण है इसके रचियता जिनसेन हैं । षट्खण्डागम की धवलाटीका में इसे परिभाषित करते हुए वीरसेनाचार्य रहते हैं "कम्मणिज्जरणट्ठट्ठमज्जाणुगयस्स परिगम - पेक्खाणाम सांगीभूदकदीए कम्मणिज्जरट्ठमणुसरण मणुवेक्खणा' X अनुप्रेक्षाओं का यह चिन्तन केवल भारतीय विचारकों तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु पाश्चात्य कवियों ने भी इस पर चिन्तन किया है । यह बात अलग है कि वे अनुप्रेक्षा जैसे शब्द से परिचित न हो । उनके विचारों में अनुप्रेक्षाओं से बहुत कुछ समानता दिखाई देती है।
अनुप्रेक्षात्रों के बारह प्रकार बताये गये हैं
१- अनित्य अनुप्रेक्षा २- अशरण अनुप्रेक्षा ३ - ससार अनुप्रेक्षा ४एकत्व अनुप्रेक्षा ५- अन्यत्व अनुप्रेक्षा ६ - अशुचि अनुप्रेक्षा ७- अस्त्रव अनुप्रेक्षा ८- संवर अनुप्रेक्षा - निर्जरा अनुप्रेक्षा १०- लोक अनुप्रेक्षा ११- बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा १२ - धर्म अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा के इन प्रकारों का वर्णन वारस अणुवेक्खा, तत्त्वार्थ सूत्र 4, प्रशमरति प्रकरण, +
मूलाचार,
स्वामिकार्तिकेया
उत्तराध्ययन सूत्र टीका २६/२२
X षट्खण्डागम पुस्तक ६, पृ० २६२-६३ * अद्धवमसरण मेगत्तमण्णत्त संसार लोयमसुइत्तं ।
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आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोधि च चितिज्ज || [ बारस अणुवेक्खा २ )
4 तत्वार्थ सूत्र ६/७
+ प्रशमरतिप्रकरण ८ / १४९-५० मूलाचार, द्वादशानुप्रेक्षाधिकार पृ० १-७६