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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८६ बदल जाता हैं उसमें चिन्तन मनन का समावेश हो जाता है । इस प्रकार अनुप्रेक्षा का अर्थ बार-बार देखना या चिन्तन मनन पूर्वक देखना और मन, चित्त और चैतन्य को उस विषय में रमाना, उन उन संस्कारों को दृढ़ीभूत करना होता है।+ अनुप्रेक्षों से कर्मो का बन्धन शिथिल होता है तब अशुभ विचारों का आना कम हो जाता है अतः अनप्रेक्षायें कर्म के निरोध की साधना भी है। जिसकी आत्मा भावना योग से शुद्ध होती है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।- इस प्रकार से हम देखते है कि भावना अर्थात अनप्रेक्षा का जीव से बहत गहरा सम्बन्ध होता है और भावनाओं का चिन्तन करने से आत्मा की शुद्धि होती है। इसलिए बार-बार ईश्वर का जप करना बतलाया गया है। अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य की जननी भी कहा है । A अनुप्रेक्षा का चरम उद्देश्य संवर की सिद्धि अनुप्रेक्षागों का वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में काफी अधिक मात्रा में किया गया है-आचार्य उमास्वामी ने इसका अर्थ करते हए कहा है कि ग्रन्थ, पाठ और उसके अर्थ का मन से चिन्तन अन प्रेक्षा है। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में नेमिचन्द्र ने कहा है कि अनुप्रेक्षा से संवर की प्राप्ति होती + (क) अणुप्पेहा णाम जो ग्णसा परियट्टेइ णो वायाए । (दशवैका लिक चूर्णि, पृ० २६) (ख) परिज्ञातार्थस्य एकाग्रेण मनसा यत्पुनः पुनः अभ्यसनं अनुशीलनं सानप्रेक्षा । (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका ४६६) [ग] शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा । (सर्वार्थसिद्धि ६/२/४०९] उत्तराध्ययन २६/२२ - भावणाजोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ ॥ (सूत्र कृताड्.ग १/१५/५) A वैराग्य उपावन माई, चितो अनुप्रेक्षा भाई । (छहढाला ५/१) * तत्त्वार्थधिगमसूत्र ६/२
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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