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(८५ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
जीतने के दो उपाय बताये गये हैं १- अनप्रेक्षाओं का संचिन्तन और २- स्वाध्याय में नित्य उद्यामी रहना। इन दोनों साधनाओं में निरन्तर लगे रहने से व्यक्ति मन को अवश्य ही जीत लेता है। और जब मन को अन्य विकल्प व विकारों से रहित करके आत्म स्वरूप में स्थिर करे तब ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, केवल बाह्य तप से उत्तम पद पाना असम्भव है। जब मन अविद्या का उल्लंघन करके निजस्वरूप को प्राप्त हो जाता है तब वही ध्यान है, वही ध्येय है और वहीं विज्ञान है ।* ध्यान और अनुप्रेक्षा
जैन दर्शन में सकषाय और अकषाय इन दो मार्गों का निर्देश है । A जैसे क्लिष्ट वृत्ति में अविद्या, अस्मिता, रागद्वेष एवं अभिनिवेश ये पाँच क्लेश आते है, वैसे ही सकषाय वत्ति में भी मिथ्यादर्शन अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का वर्णन है।- इस प्रकार से संसार के मूल कारण में अज्ञानता एवं मिथ्यात्व ही है। इसी मोह माया के चक्कर में पड़कर मानव इस संसार में अनन्त काल से भटकता फिर रहा है। इसलिए पिछले जन्म के संस्कारों तथा वतमान जन्म के कर्मों को नष्ट करना जीव के लिए परमावश्यक है ताकि वह मोक्ष प्राप्त करके जन्म व मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो सके लेकिन मानव की इन्द्रियाँ तथा मन जीव को हमेशा अपने मार्ग से विचलित करने एवं रागद्वषादि को बढ़ाने में निरन्तर लगे रहते हैं इसलिए उनसे वजय प्राप्त करने के लिए अनुप्रेक्षाओं का विधान है। _ 'प्रेक्षा' अर्थात् देखना, गहराई से देखना, किन्तु उसमें कोई चिन्तन मनन न हो । 'अनु' उपसर्ग लगते ही प्रेक्षा शब्द का अर्थ ही x संचिन्त्यन्नन प्रेक्षाः स्वाध्याये नित्यमुद्यतः ।
जयत्येव मनः साधुरिन्द्रियाऽर्थ-पराड्.मुखः ।। [तत्वानुशासन ७६] * तळ्यानं तद्धि विज्ञान तद्धयेयं तत्वमेव वा।
येनाविद्यामतिक्रम्य मनस्तत्त्वे स्थिरी भवेत् ॥ [ज्ञानार्णव,
२२/२०) A सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः। [तत्वार्थ सूत्र ६/४) - वही ८/१