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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८४) जीतने के लिए सच्चा ज्ञान और वैराग्य दोनों साधन होने चाहिए । ये दोनों प्रथमत: मन को जीतने के भी साधन है। इन्द्रियाँ उन बिजलियों के समान है जो कन्ट्रोल अर्थात् नियन्त्रण में रखे जाने पर हमें प्रकाश प्रदान करती हैं और यन्त्रों द्वारा सचालित होकर हमारे कार्य सिद्ध करती हैं, लेकिन अनियन्त्रित होने पर वे ही अग्निकाण्डादि के द्वारा हमारा सब कुछ नष्ट कर हमें बरबाद कर देती है। इसीलिए कभी भी इन्द्रियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, अपितु स्वयं इन्द्रियों पर हावी होना चाहिये तभी मानव सुखी रह सकता है और यही सच्चा सुख है। भौतिक सुख तो मात्र मग मरीचिका के समान होता है जो कि दिखने में तो सुखदायी लगता है, लेकिन क्षण भर के बाद वही सुख-दुख में परिवर्तित हो जाता है। अतः ध्यान की सिद्धि के लिए इन्द्रियों का निग्रह परमावश्यक है। मनोनिग्रह इन्द्रिय निग्रह के समान मन का निग्रह भो ध्यान की सिद्धि के लिए आवश्यक है, क्योंकि जिसने मन का रोध किया अर्थात जिसने मन को वश में कर लिया उसने सबको वश कर लिया अन्यथा जिसने मन को वश में नहीं किया वह इन्द्रियों को भी वश में नहीं कर सकता । मन की शद्धि भी जरूरी है क्योंकि मन की शद्धता से ही ध्यान की निर्मलता भो होती है और कर्मों की निर्जरा भी होती है। मन की शुद्धता से विवेक बढ़ता है। जिस मुनि ने अपने चित्त को वश में नहीं किया उसका तप, शास्त्रों का अध्ययन प्रत धारण, ज्ञान, कायक्लेश आदि सब व्यर्थ हैं क्योंकि मन के वश में हुए व्यक्ति को ध्यान की सिद्धि नहीं होती एवं मन को जोते बिना आत्मा का अनुभव नहीं होता। मन को जोतने पर व्यक्ति सहज ही जितेन्द्रिय हो जाता है। मन के संकल्प और विकल्प रूप व्यापार को रोकना अथवा मन की चंचलता को दूर कर उसे स्थिर करना 'मन को जोतना' कहलाता है।.... तत्वान शासन में मन को वही सर्ग २२, श्लोक १५ ... इद्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभु । मन एवं जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः।। (तत्वानुशासन ७६)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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