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________________ जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (८३) स्पर्शनेन्द्रिय रागोपरति योगी को अपने जीवन में शीत-उष्ण, आदि स्पर्शों के प्रति सदैव उदासीन रहना चाहिये चाहे सर्दी हो या गर्मी, उसको सभी स्पर्शों में एक ही अहसास होना चाहिए, न कि शीत में शोतलता और न ही ग्रीष्म में उष्णता । उसको हल्के भारी स्पर्शों में भी शान्त चित्त रहना चाहिये। कभी भी अपने मन को अशान्त न रखे। इस प्रकार योगी पाँच महाव्रतों का एवं उनकी पच्चीस भावनाओं का पालन करता है तो उसका चित्त सदैव एकाग्र एवं शान्त रहता है उसे किसी भी प्रकार का विकार नहीं होता। पच्चीस भावनाओं के अलावा कुछ अन्य सामान्य भावनायें भी हैं जिनसे पाँच महाव्रतों की पुष्टि होती है वे भावनायें इस प्रकार हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ।x अर्थात् हिंसा आदि दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्य का दर्शन ये भावना के योग्य है और हिंसादिक दुख ही है। इन्द्रिय निग्रह जब तक ध्याता इन्द्रियजयी नहीं होता तब तक उसको ध्यान की सिद्धि नहीं होती अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह किये बिना वह ध्यान की प्राप्ति नहीं कर सकता क्योंकि इस संसार में इन्द्रिय जनित सुख ही दुख हैं क्योंकि यह सुख अज्ञान से परिपूर्ण होता है। ज्ञानीजन इस सुख से सुखी नहीं होते लेकिन अज्ञानी लोग इस सूख को आनन्द की प्राप्ति मानते हैं. जो मिथ्या है इसीलिए जीवों को अपनी इंद्रियों को वश में रखना चाहिये। उनके वशी नहीं होना चाहिए क्योंकि जीवों के इन्द्रिय जैसे-जैसे वश में होती है, वैसे-वैसे उनके हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्रकाशमान होता रहता है ।+ इन्द्रियों को .x तत्त्वार्थ सूत्र ७/६. + यथा यथा हृषीकाणि स्ववशं यान्ति देहिनाम। .. तथा तथा स्फुरत्युच्चैहृदि विज्ञानभास्करः॥ (ज्ञानाणंव, सर्ग २०, श्लोक ११]
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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