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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (८२) साधक श्रमण को निग्रंथ कहते हैं, और ग्रन्थ का अभिप्राय परिग्रह से है । निग्रन्थ अपरिग्रही होता है। उसके अन्तर्मन में निर्ममत्व होता है । परिग्रह अथवा ममत्व भाव अशान्ति का कारण होता है और अशान्त चित्त कभी भी एकाग्र नहीं हो सकता और फिर जिस साधक का चित्त एकाग्र नहीं होगा अशान्त होगा, वह योग साधना करने में असमर्थ होगा इसलिए योग के लिए एकाग्र चित्त होना परम आवश्यक होता है। अतः अपरिग्रह योग साधना में सहायक होता है। जैन आगमों में भी वैराग्य या निर्वेद में लीन होने पर अनेक भव्यों को जाति स्मरण ज्ञान की उत्पत्ति के उदाहरण मिलते हैं। परिग्रह महाव्रत को स्थिर करने के लिए पाँच भावनायें हैं।+ १- श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति योगी प्रिय या अप्रिय वचनों को सुनकर न तो खुशी का अनुभव करे और न ही दुखी हो अपितु कठोर से कठोर और कोमल से कोमल वचनों को सुनकर भी उसमें राग-द्वेष न करे । सदैव शान्त चित्त रहे। ३- चक्षुइन्द्रिय रागोपरति__योगी को सुन्दर या असुन्दर, सुरूप-कुरूप आदि देखने पर रागद्वेष की भावना मन में नहीं लानी चाहिये अपितु किसी भी रूप को देखकर मन चंचल नहीं करना चाहिए । सदैव शान्त भाव से सभी रूपों को देखकर रागद्वेष रहित रहे । ३. घाणेन्द्रिय रागोपरति सुगन्धित एवं दुर्गन्ध से युक्त किसी भी वस्तु को सूधकर योगी को रागद्वेष नहीं करना चाहिये अपितु शान्त रहे मन को अशान्त नरखे। ४. रसनेन्द्रिय रागोपरति योगी को विभिन्न प्रकार के रसों के आस्वादन में उदासीन रहना चाहिए किसी भी प्रकार की रागद्वेष की भावना नहीं प्रदर्शित करनी चाहिए अपितु निष्काम भाव से शान्त चित्त रहना चाहिये। + मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च । (तत्त्वार्थ सूत्र - ७/८) -
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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