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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [८१] पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये। . मनोहर अंग-प्रत्यड.गों के अवलोकन का त्याग योगी को स्त्रियों के काम को बढ़ाने वाले एवं मनोहर अड्.गों का अवलोकन नहीं करना चाहिये क्योंकि इससे काम की वृद्धि होती है। यह योगियों के लिए निषेध है। इसलिए योगी स्त्रियों के अड्.गों की ओर दृष्टि निक्षेप नहीं करता है। ३- पूर्व रति स्मरण त्यागः _____ योगी ने अपने जीवन में जो पहले स्त्री सम्बन्धी सुख भोगे हों उनका उसे स्मरण नहीं करना चाहिये अर्थात् योगी ने जो पूर्व अर्थात् दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व जो स्त्री सम्बन्धी सुखों का अनुभव किया हो बाद में उसे उन सुखों का स्मरण नहीं करना चाहिये। ४- प्रणीत रस भोजन वर्जन योगी का कर्तव्य है कि वह कामवर्धक, रसीले, स्वादिष्ट और गरिष्ठ आहार का त्याग करे; क्योंकि ऐसे आहार से चित्त चंचल हो जाता है । तामसी भोजन से बद्धि भी तामसिक हो जाती है जिससे श्रमण का चित्त चंचल हो जाता है। इसके साथ-साथ उसे भोजन की मात्रा भी कम खानी चाहिये अधिक भोजन करने से भी विकार बढ़ता है। तत्वार्थसूत्र में इसके स्थान पर वृष्येष्टरस त्याग बतलाया है । इसका तात्पर्य कामवर्द्धक गरिष्ठ रसों का त्याग है। ५- शयनासन वर्जन. __ योगी को आसन भी पवित्र प्रयोग में लाना चाहिये । स्त्री-पशुनपुंसक आदि के द्वारा प्रयुक्त आसन शयया आदि का प्रयोग उसके लिए निषिद्ध है। यदि मजबूरी वश उस आसन का प्रयोग करना ही पड़ जाये तो उनके उठने के एक मुहर्त बाद ही उस आसन को ग्रहण करना चाहिए। तत्त्वाथ सूत्र में शयनासन वर्जन के स्थान पर स्वशरीर संस्कार त्याग का उल्लेख है। तदनुसार अपने शरीर के कामोद्दीपक संस्कारों का त्याग इस भावना में गर्मित है। ५-अपरिग्रह महाव्रत परिग्रह का आशय यहाँ भाव और द्रव्य परिग्रह दोनों से है।
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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