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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६० मन्त्र और औषधियों में से किसी से भी मरण टलता नहीं है ।... इसलिए भगवान ने साधक को अशरण अनुप्रेक्षा का सूत्र आचाराड्.ग में दिया है णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसि णालं ताणाए वा, सरणाए वा ।। २/१६४ अशरण अनुप्रेक्षा का साधक इन सब साधनों की नश्वरता और क्षण-क्षण बदलते रूप को देखकर इनके प्रति रागद्वेष की भावना का त्याग कर देता है। वह धर्म की शरण को ही वास्तविक शरण मानता है और 'अप्पाणं शरणं गच्छामि' मैं आत्मा की शरण में जाता हूँ। इस सूत्र को मन में बिठा लेता है। यदि निश्चयात्मक दृष्टि से विचारा जाये तो अपनी आत्मा का ही शरण है, और व्यवहारिक दृष्टि से वीतरागता को प्राप्त हुए पंचपरमेष्ठी का ही शरण है। अतः सब की शरण छोड़कर इन दो की शरण में जाना चाहिये ।x जबकि तत्वार्थ सत्र में 'जग में धर्म के सिवा और कोई शरण नहीं है ' ऐसा कहा गया है और इसका चिन्तवन करना अशरणानुप्रेक्षा है।* धर्म से हो मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है। ३- संसार अनुप्रक्षा संसार का अभिप्राय है-जन्म मरण का चक्र । यह भ्रमण, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव- इन चार गतियों में होता है और प्राणी इन्हीं में भ्रमण करता रहता है। संसार अनुप्रेक्षा का लक्षणसंसरणं संसारः । भवाद् भवगमनं नरकादिष पूनमणं वा। संसार में सच्चा सुख लेशमात्र भी नहीं है वह दुखों से भरा है। प्रत्येक जीव संसरण कर रहा है। संसार भावना का चिन्तवन करता हुआ साधक संसार के दुखों, जन्म जरा मरण की पीड़ा एवं चार गतियों की पीड़ा का विचार करता है और सोचता है कि 'एगंतदुक्खं जरिये व लोय' ।+ वह भगवान महावीर के शब्दों में 'पास लोए x ज्ञानार्णव, सगं २, श्लोक १६ * तत्त्वार्थ सूत्र टी० ६/७ A ज्ञानार्णव सगं २, श्लोक। + सूत्रकृताड्ग १७/११
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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