________________
(६१) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
महन्मयं संसार को महाभयानक देखता है । इस भावना से साधक संसार के प्रति निराशा या भय की भावना से व्याकुल नहीं होता। संसार के स्वरूप का ऐसा चिन्तवन करना संसार अनुप्रेक्षा है। - ४- एकत्व अनुप्रेक्षा___ एकत्व अनुप्रेक्षा का चिन्तन करने से व्यक्ति अनुभव करता है कि वह अकेला ही आया है और अकेला ही जायेगा। सुख-दुख, रोग-शोक उसी को सहन करने पड़ते हैं। उसका इस संसार में कोई भी साथी नही है। आचाराड़.ग सूत्र में यह अनुप्रेक्षा इन शब्दों में वर्णित की गई हैं 'अइ अच्च सव्वतो संगण महं अस्थित्ति इति एगोहमंसि' X साधक आत्मा को बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय और मनोज्ञ देखने, जानने लगता है और समझने लगता है। अपनी आत्मा के गुणों में उसकी रुचि इतनी बढ़ती जाती है कि वह उसी में मग्न रहता है। वह इस प्रकार के एकत्व का आसरा लेता है। वह ऐसा सोचने लगता है कि भाई-बन्धु जितने भी साथी है वे उसके दुखों को दूर नहीं कर सकते वे तो मात्र उसके श्मशान तक के ही साथी हैं कोई उसके साथ नहीं जाता, एक केवल धर्म ही ऐसा है, जो उस के साथ जाता है ।... जिस समय जीव भ्रमरहित होकर ऐसा चिन्तवन करने लगता है तो उस समय उसका संसार से सम्बन्ध नष्ट हो जाता है क्योंकि सांसारिक बन्धन तो मोह का कारणभूत होता है, और जब मोह समाप्त हो जाता है तो जीव मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।→ बौद्ध साहित्य में भी एकत्व अनुप्रेक्षा का वर्णन मिलता
आचाराड्.ग ६/१ - योगशास्त्र ४/६६ A स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ७४-७५ * आचाराड्.ग सूत्र ६/३८, ८/६७ x मज्झवि आया एगे भंडे, इठे, कंते, पिये, मणुन्ने । (भगवती
सूत्र २/१) ... तत्त्वार्थ सूत्र टीका ६/७ → ज्ञानार्णव सर्ग २, श्लोक १०