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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६२)
है ।... एकत्व भावना के अनुचिन्तन से जीव में पुरूषार्थ जागता है, वह इतना पुरुषार्थी हो जाता है कि अकेले ही साधना पथ पर चलने की क्षमता रखने लगता है। भगवान के शब्दों में 'एगं चरेज्जधम्मो'- अर्थात् अकेले ही धर्माचरण करो । विभिन्न ग्रन्थों में भो एकत्व अनुप्रेक्षा का वर्णन मिलता है ।* ६- अन्यत्व अनुपक्षा
अन्यत्व अनुप्रेक्षा के चिन्तन से जीव भेद विज्ञान की साधना करता है । संसार के सारे पदार्थ मुझसे भिन्न है और मैं उनसे भिन्न है। इस जगत् में जो जड़ और चेतन पदार्थ प्राणी के सम्बन्ध रूप हुए है वे सब ही अपने-अपने स्वरूप से भिन्न है कोई भो पदार्य अभिन्न नहीं है, केवल आत्मा सबसे अन्य है । शरीर आदि का चेतन आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि वे सभी जीव के स्वभाव नहीं है । A इस प्रकार बाह्य पदार्थों एवं शरीर से अपने को भिन्न चिन्तवन करना ही अन्यत्व अनुप्रेक्षा है।- साधक का दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ममत्व ही सारे दुखों एवं चिन्ताओं का कारण हैं अतः वह ममत्व को त्याग कर समत्व में लोन हो जाता है जिससे उसे मोक्ष के सुख की प्राप्ति हो जाती है। ६- अशुचि अनुप्रेक्षा
शरीर अत्यन्त अपवित्र है जिसमें रुधिर, माँस एवं चर्बी आदि - एको उत्पद्यते जन्तुम्रियते चैक एव हि । नान्यस्य तद्वयथाभागः किं 'प्रियविनकारकैः। [बोधिचर्यावतार ८/३३] X सूत्रकृताड्.ग २/१/१३ * उत्तराध्ययन ९/१५-१६, [ख] महाप्रत्याख्यान ३७-४०, [ग)
भक्त परिज्ञा ५६ A क्षीरनीरवदेकत्र स्थितियोर्देहदेहिनोः।। मेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा ।। (पद्मनन्दि पंचविशतिका ६/४६) -- तत्त्वार्थ सूत्र टीका ६/७