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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [६३] दुर्गन्धयुक्त पदार्थ भरे पड़े हैं। यह शरीर जैसा बाहर है वैसा ही भीतर है। साधक इस अशूचि शरीर को अन्दर ही अन्दर देखता है और झरते हुए विबिध स्त्रोतों को भी देखता है जिनसे निरन्तर दुर्गन्धयुक्त पदार्थ झरते रहते हैं ।+ इसे चाहे जितना भी स्नानादिक कराये या सुगन्ध लगाये लेकिन इसकी अपवित्रता दूर नहीं हो सकती शरीर की अपवित्रता को देखने से साधक के मन में इसके प्रति जो राग या आसक्ति होती है वह मिट जाती है उसका प्रेम, ममत्व नष्ट हो जाता हैं वह पावनता तथा पवित्रता की ओर मुड़ता है । पवित्रता उसे आत्मा व आत्मिक गुणों में दिखाई देती है । उसका शरीर के सौन्दर्य के प्रति मोह खत्म हो जाता है। वह आतमा पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगता है क्योंकि आत्मा तो निर्मल है अमूर्तिक है और उसके मल लगता ही नहीं। अशुचि अनुप्रेक्षा साधक का अपवित्रता से पवित्रता की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करती है। उत्तराध्ययन में भी इसका वर्णन किया है । ६- आस्व अनुप्रेक्षा
अब तक छः अनुप्रेक्षायें बाह्य जगत से सम्बन्धित थ' जिनके द्वारा जीव बाह्य जगत् के प्रति अपने मिथ्यात्व मोह को छोडता है लेकिन आस्व अनप्रेक्षा के द्वारा साधक अपने आन्तरिक जगत का अवलोकन करता है। मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं और इसी किया को आस्व भी कहते हैं।- मन, वचन, काय के व्यापार ही कर्मों के . आस्व के द्वारा x ज्ञानार्णव सगं २, श्लोक २ + जहा अतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अन्तो।
तो अंतो देहन्तराणि पासति पुढो वि सवंताई ॥ (आचाराड्.ग २/५/६२] R (कउत्तर ध्ययन १६/१२,१३ (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/७/४१६ (क) ज्ञानार्णव सर्ग २,१ (ख) तत्वार्थ सूत्र टीका ६/१