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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६४) हैं।A आस्व पाँच प्रकार का होता है १- मिथ्यात्व, २- अविरति, ३- प्रमाद, ४- कषाय और ५- योग। इनमें से साधक मिथ्यात्व का तो पहले ही त्याग कर देता है शेष चार बचते हैं । आस्व आत्मा के छेद हैं जिस प्रकार नाव में छेद होने से पानी नाव में भरकर उसे डुबाने लगता है उसी प्रकार आस्तव के रूप में आत्मा में कर्मजल भरता है जो उसे संसार रूपी समुद्र में डुबोने लगता है। लेकिन आस्व अनुप्रेक्षा से जीव उन छिद्रों को देखता व समझता है और उन कमियों को दूर भी करता है। ८- संवर अनप्रक्षा संवर आस्व का विरोधी है। आस्व के निरोध को संवर कहा गया है।.... माधक आस्त्रव के विपरीत प्रवृत्ति करके संवर करता है । - संवर के बिना आत्मशुद्धि होना कठिन है। आस्व का निरोध कारण हैं और संवर कार्य है। कारण में कार्य का उपचार करके आस्व के निरोध करने को संवर कहा गया है। संवर द्रव्यसंवर एव भावसंवर से दो प्रकार का है। द्रव्यरूप से वह मन, वचन, काय को एवं कषायों आदि को स्थिर रखता है और भावरूप से मन के संकल्पों विकल्पों आदि को रोकता है । 8- निर्जरानुप्रेक्षा निजरा आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है। फल देकर कर्मों का झरना निर्जरा है।* पूर्व संचित अथवा बंधे हुए कर्मों को तप के द्वारा नष्ट करना निजंरा है ।-इम अनुप्रेक्षा के चिन्तन में साधक निर्जरा के A मनोवाक्यकायकर्माणि योगाः कर्म शुभाशुभम । यदापवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः ॥ (योगशास्त्र ४/७४) पूव्वत्तासवभेयो णिच्छयणएण णात्थि जीवस्स। उदयासवणिम्मुवकं अप्पाणं चितए णिच्चं ॥ (बारसअणुवेक्खा ६०) .... ज्ञानार्णव २/१, तत्वार्थ सूत्र टी० ६/१ x वृहद्नयचक्र १५६ [देवेसेनाचार्यकृत) * योगशास्त्र ४/८० A तत्वार्थसूत्र टी० ६/७ - ज्ञानार्णव २/१ -
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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