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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
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लक्षण, स्वरूप व साधनों के बारे में चिन्तन मनन करता है जिससे उसकी आत्मा में तप, दान व शील के प्रति आकर्षण बढ़ता हैं । निर्जरा दो प्रकार की है १- सकाम निर्जरा २- अकाम निर्जरा । इनमें सकाम निर्जरा केवल मुनियों के होती है और जीवों को अकाम निर्जरा होती है। निर्जरानुप्रेक्षा आत्मा की शुद्धि का साधन है इसके द्वारा जीव अपनी आत्मा की शुद्धि का प्रयास करता है, जिससे उसमें अद्भुत साहस एवं तितिक्षा वृत्ति जागृत होती है । १०- लोकानुप्रक्षा
लोकानुप्रेक्षा में साधक जीव और अजीव की विविधताओं तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का चिन्तन करता है। यह लोक अनादि एवं अकृत्रिम है तो भी प्राणी नाना दुख उठा रहे हैं यहो लोकानुप्रेक्षा है।+ यह लोक अनादि काल से स्वयमेव सिद्ध है, तीन वातवलयों से वेष्टित है, निराधार है । इसके सम्पूण चिन्तन से जोव की आत्मा शुद्ध होती हैं, वह लोक के वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता
११- बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा
इस भावना का अनुचिन्तन करते हुए साधक जीव की क्रमिक उन्नति पर विचार करता है और सोचता है कि मेरा अनादि काल से आवागमन के बन्धनों में जकड़ा हुआ है उसने प्रत्येक योनि (तिर्यंच, नरक, देव एवं मनुष्यादि) में भ्रमण कर लिया है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय सब कुछ बना पशुपक्षी बना किन्तु मुक्ति कहीं भी नहीं मिली अब मुझे मुक्ति प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण बल, पराक्रम लगा देना चाहिये । ऐसा विचार करना ही बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है।
सकामाकामभेदेन द्विधा सा स्याच्छरीरिणाम् ।। निर्जरा यमिनां पूर्वा ततोऽन्या सर्वदेहिनाम् ।। (ज्ञानार्णव २/२) + तत्वार्थसूत्र टी० ६/७
(ख) ज्ञानार्णव २/३ । x योगशास्त्र ४/१०४-१०६