SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६६) १२-धर्मानुप्रेक्षा धर्म आत्मा की उन्नति का साधन है। धर्म से हो आत्मा को श्रेयस् की प्राप्ति होती है । धर्म से ही प्राणी संसार के दुखों से मुक्ति पाकर सुख की प्राप्ति करता है । वह धर्म अहिंसा, संयम और तप रूप उत्कृष्ट मंगल हैIA जिस धर्म ने जगत् को पवित्र करके उसका उद्धार किया उसको देवता भी नमस्कार करते हैं। धर्म ही गुरु, मित्र स्वामी है। असहायों का सहायक है एवं दुर्बलों का रक्षक है। धर्म साधना में साधक धर्म से सूक्ष्म रहस्य को हृदयंगम कर लेता है जिससे उसके जीवन में सुख शान्ति का सागर लहराने लगता है और उसकी आत्मा को उन्नति होती हैं। जो बातें अपने लिए अनिष्टकारी हैं, वे कैसे किसी के लिए इष्ट हो सकती है ऐसा सोचकर सबके साथ अपने जैसा व्यवहार करना ही धर्म का मुख्य चिन्ह है।... मुनियों ने क्षमादि दस धर्मो का वर्णन किया है। १- क्षमा २- मार्दव ३. शौच ४- आजव ५- सत्य ६- संयम ७- ब्रह्मचर्य ८-तप 8- त्याग १०- आकिंचन्य स्थानाड्.ग सूत्र में इनके नाम इस प्रकार दिये गये हैं १- क्षांति २- मुक्ति, ३- आर्जव, ४- मादव, ५-लाधव, ६- सत्य, ७- संयम, ८- तप, 8- त्याग, १०- ब्रह्मचर्य ।* = कर्मनिवर्हण, संसार दुखतः सत्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे । (रत्न करण्ड श्रावकाचार श्लोक २) A दशवैकालिक १/१ ज्ञानार्णव २/१ .... ज्ञानार्णव, सर्ग २, श्लोक २ x (क) तितिक्षा मार्दवं शौचमाजवं सत्य संयमौ। __ब्रह्मचर्य तपस्त्यागाकिञ्चन्य धर्म उच्यते ।। वही २/२० (ख) उत्तम क्षमा मार्दवार्जव शौच सत्य संयम तपस्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणिध मः। (तत्वार्थ सूत्र ६/६] (ग) समवायांग, समवाय १० * खती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, वभ चेरवासे । (स्थानाङ्ग १०/७१२)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy