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________________ जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (६७) कहीं-कहीं इनके क्रम में भेद मिलता है लेकिन उनका स्वरूप एक ही है, भेद नहीं है । इस प्रकार इन बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन मनन से साधक अपनी वैराग्य भावना को दढ़ करता है। इनके निरन्तर अभ्यास से हृदय में उत्पन्न कषाय रूपी अग्नि बुझ जाती है तथा ज्ञान रूपी अन्धकार मिटकर ज्ञानरूप दीपक प्रकाशित हो उठता है । इन्हें संवर का कारण कहा गया है। ये बारह अनुप्रेक्षायें वैराग्य की जननी भी कहलाती है । ध्यान के योग्य आसन जैन योग में आसन के अर्थ में 'स्थान' शब्द का प्रयोग मिलता है। आसन का अर्थ है 'बैठना' । स्थान का अर्थ है 'गति को निवृत्ति' स्थिरता आसन का महत्वपूर्ण स्वरूप है। आसन बैठकर, खड़े होकर, लेटकर तीनों प्रकार से किये जा सकते हैं। आसन की अपेक्षा 'स्थान' शब्द अधिक उपयुक्त व व्यापक है। आसनों का वर्णन उपनिषदों में भी मिलता है ।+ भगवद्गीता में आसनों के द्वारा मन स्थिर होता है, ऐसा कहा गया है। आसनों का वर्णन भागवतपुराण में भी स्थान मिलता है। - पातजलि ने कहा है कि अधिक समय तक सुख के साथ स्थिर होकर बैठना ही आसन है । हठयोग में भी आसनों का वर्णन किया गया है ।* हठयोग एवं अन्य यौगिक ग्रन्थों में आसन के ८४ प्रकार बतलाये गये हैं लेकिन ध्यान की साधना में सहकारी कृछ ही A [क) तत्वार्थसत्र, टीका १/७ (ख] ज्ञानार्णव १३/२ + [क) तस्मा आसनमाहृत्य । (वृहदारण्यकोपनिषद् ६/२/४) (ख) तेषां त्वया सनेऽन प्रश्वसितव्यम् । (तेत्तिरीयोपनिषद् १/११/३) स्थिरमासनमात्मनः । (भगवद्गीता ६/११, ११/४२) = श्रीमद्भागवतपुराण २/१/१६, ३/२८/८, ४/८/४४] X योगदर्शन २/४६ *घेरण्डसंहिता २/३-६
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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