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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप (६८)
आसन हैं। जैन परम्परा में यद्यपि चित्त की स्थिरता के लिए किसी विशेष आसन का प्रयोग करना चाहिये, ऐसा कहीं कोई नियम नहीं है परन्तु जिस आसन के द्वारा मन स्थिर होता है उसी आसन का उपयाग ध्यान साधना के लिए उपयुक्त कहा गया है। ज्ञानाणंव में ध्यान के योग्य १- पर्यंक आसन, २- अद्धपयंक आसन, ३- वज्रासन, ४वीरासन, ५- सुखासन, ६- कमलासन, ७- कायोत्सर्ग, इन आसनों को माना है।... आचार्य हेमचन्द्र ने १- पयँकासन, २- वीरासन, ३वज्रासन, ४- भद्रासन, ५- दण्डासन, ६- उत्कटिकासन, ७- गोदोहिकासन तथा ८- कायोत्सर्ग आसन का उल्लेख किया है।→ परन्तु दण्डासन का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। स्थानाड़.ग, औपपातिक, वहत्कल्प, दशाश्र तस्कन्ध आदि आगमों में वीरासन, दण्डासन, आम्रकुब्जिका तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में वज्रासन, सुखासन, पद्मासन, भद्रासन, शवासन, समपद, मकरमुख,हस्तिशुण्डि, गोनिषद्या, कुक्कुटासन आदि आसनों का वर्णन प्राप्त होता है। इसी प्रकार उपासकाध्ययन* में वर्णित सुखासन का जो रूप है वह योगशास्त्र तथा अमितगति x जायते येन येनेह विहितेन स्थिर मनः ।
तत्त देव विधातव्यमासनं ध्यान साधनम् ॥ [योगशास्त्र ४/१३४] -पर्यड़,कमर्चपर्य.कं वज्र वीरासनं तथा ।
सुखारविन्दपूर्वे च कायोत्सर्गश्च सम्मतः ॥ (ज्ञानार्णव, सर्ग २८, श्लोक १०) → पर्यंक-वीर-वजाब्ज-भद्र-दण्डासनानि च ।
उत्कटिका-गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् ॥ योगशास्त्र, प्रकाश ४ श्लोक १२४-१३४ x (क) समपालियंकणिसेज्जा, गोदोहिया य उक्कुडिया।
मगरमुह हत्थिसुडी, गोणणिसेज्जद्धपलियंका ।
वीरासणं च दंडा य, ......। [मूलाराधना ३/२२४-२२५] [व] वृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६५३ ।।
निषद्या नाम उपवेशनविशेषः, ताः पञ्चविधाः, तद्यथा-सम
पादपुतागोनिषधिका हस्तिशुण्डिका पर्यंड.काडर्धपर्यड्.का चेति । * उपासकाध्ययन ३६/७३३-३७