SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६१) ४-संस्थान विचय धर्म ध्यान : __"संस्थान" का अभिप्राय "आकार" से है । इस ध्यान में ऊर्ध्व, मध्य और अधो लोक का चिन्तन किया जाता है । तीनों लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयू आदि का चिन्तवन करना ही संस्थान विचय धर्म ध्यान कहलाता है। अनादि काल से, अव्याहत रूप से जो अस्तित्व में है उस जगत के ध्यान को करने का संस्थानविचय धर्म ध्यान कहते हैं । = इस ध्यान में द्रव्यों के लक्षण, आकार, आसन, भेद, मान आदि का विचार किया जाता है और चूँकि यह जगत् उत्पाद, ध्रौव्य और भंग से युक्त है अत: उस पर भी विचार किया जाता है। A पर्याय की दष्टि के अनुसार पदार्थो का उत्पाद और व्यय होता ही रहता है, लेकिन अगर द्रव्य की दष्टि से देखा जाये तो पदार्थ नित्य ही रहता है । भगवती आराधना में भेदों से यूक्त तथा वेत्रासन, झल्लरी और मदंग के समान आकार के साथ ऊर्ध्व लोक, अधोलोक और मध्यलोक के चिन्तन को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहा है।→ [क] सुप्रतिष्ठितमाकाशमाकाशे वलयत्रयम् । संस्थानध्यानमित्यादि संस्थानविच यं स्थितम् (हरिवंश पुराण ५६/४८) [ख] सर्वार्थसिद्धि ६/३६/४५०/३ [ग] तत्वार्थसार ७/४३ घि] द्रव्यसंग्रह टीका ४८/२०३/२ [ड़.] राजवार्तिक ९/३६/१०/६३२/६ -- अनाद्यनंतस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्ति व्यायात्मनः । आकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थान विचयः स तु ॥(योगशास्त्र १०/१४) A (क) जिणदेसियाइ लक्खण-संठाणाऽऽसण-विहाण-माणाई। उप्पायट्टिइभगाइ पज्जवा जे य दव्वाणं ।।(ध्यानशतक ५२) (ख) स्थित्युत्पत्ति व्ययोपेतैः पदार्थेश्चेतनेतरैः । सम्पूर्णोऽनादिसंसिद्धः कर्तृ व्यापार बजितः ।। (ज्ञानार्णव३६/२) → अह तिरियउड्ढलोए विचिणादि सपज्जए ससंठाणे । एत्थे व अणुगदाओ अणुपेहाओ वि विचिणादि ।। (भगवती आराधना विजयोदया टी० १७०६)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy