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________________ (१६० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन अष्ट कर्म का उदय और फलोदय किस प्रकार से होता है और जीव का उस निमित्त से किस-किस प्रकार विपरिणमन होता है, उदय में आकर दुःखों और सुखों को कर्म किस प्रकार से देते हैं इत्यादि कर्मों की विविध अवस्थाओं का विचार करना भी विपाक विचय धर्म ध्यान होता है । ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रकृति स्थिति, प्रदेश और अनुभाग रूप चार बन्धों का भी विचार करना विपाक विच य ध्यान कहलाता है ।+ गुड़, खांड, मिश्री को शुभ कर्मो का और नीम, विष और हलाहल आदि को अशग कर्मों का विपाक या फल कहा गया है । ध्यान योगी साधक इन दोनों कर्मों के विपाक को भली प्रकार जानकर कर्मो के बन्ध से छटकारा पाने का प्रयास करता रहता है । विपाकों को ध्येय बनाकर वह अपने स्वभाव को उनसे अलग समझने की चेष्टा या साधना करता है। इस ध्यान से साधक का चित्त शान्त एवं निर्मल होता है और वह कर्मो का नाश करने की दिशा को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार से वह शुद्धाशय से स्वरूपोपलब्धि रूप ध्यान के फल को पा लेता है। + (क) यच्चतुर्विधबन्धस्य कर्मणो इष्ट विधस्य तु। विपाक चिंतनं धर्म्य विपाक विच यं विदुः ।। (हरिवंशपुराण (ख) कम फलानु भव विवेक प्रति प्रणिधानं विपाक विचय । (तत्वार्थ राजवार्तिक ८) (ग) चारित्रसार १७४/२ (घ) सर्वार्थसिद्धि 8/३६/४५०/२ (ङ) महापुराण २१/५४३-१४७ (क) सत्पुण्यकृतीनां गुडखंडशर्करामतः । समोद्य* कृतीनां च निम्बादिसदृशोशुभः ।। विपाको बहुधादश्चिन्त्यते यत्रमानसे । तद्विपाकजयायोच्चैविपाक विचयं हि तत् ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०५४-५५) (ख) शास्त्रसार समुच्चय, पृ० २८७)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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