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धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६३)
लोक :___इस अनन्त एवं असीम आकाश के मध्य का वह अनादि एवं अकृत्रिम अर्थात् प्राकृतिक भाग जिसमें कि जीव पुद्गल आदि छहों द्रव्य दिखाई देते हैं वही लोक कहलाता है । लोक आकाश की तुलना में न के बराबर है। उसके अर्थात् लोक के चारों तरफ का शेष अनन्त आकाश अलोक है । आकाश का यह हिस्सा जो लोक के अन्तर्गत आता है वह मनुष्याकार है और वह चारों ओर तीन प्रकार की वायु से वेष्टित है। इन तीनों पवनों में पहले तो यह लोक धनोदधि नामक वायु से बेढ़ा गया है । ये तीनों वायु ही तीनों लोकों को धारण करके अपनी शक्ति से ही इस अनन्त आकाश में अपने शरीर को विस्तारपूर्वक स्थिर किये हुए हैं। + लोक के ऊपर से लेकर नीचे तक बीचों-बीच एक राजू प्रमाण विस्तार वाली त्रस नाली है । त्रस जीव इसके बाहर नहीं जा सकते लेकिन स्थावर जीव सभी जगह रहते हैं। राजवार्तिक में लोक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि जहाँ पुण्य और पाप का फल सुख-दुख देखा जाता है वही लोक है, यहाँ व्युप्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा माना है। लोक को तीन भागों में विभक्त किया गया है। १-अधोलोक. २-मध्यलोक, ३-ऊर्ध्व लोक । - यद्यपि इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस सम्बन्ध में अनेक मतभेद हैं परन्तु वर्तमान भूगोल में प्रत्यक्ष इन्द्रिय को आधार माना गया है। + धनाब्धिः प्रथमस्तेषां ततोऽन्यो धनमारुतः । तन वातस्ततीयोऽन्ते विज्ञेया वायवः क्रमातः । उद्धत्य सकलं लोक स्वशक्त्यैव व्यवस्थिताः । पर्यन्तरहिते व्योम्नि मरुतः प्रांशुविग्रहाः ।। (ज्ञानार्णव ३६/५/६) राजवातिक ५/१२/१०-१३/४५५/२० (क) सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो सेढिविंदमाणेण ।
तिबियप्पो णादश्वो हेट्टिममज्झिल्लउड्ढ भेएण ॥ (तिलोयप
पणत्ती १/१३६) (ख) धवला १३/५/५/५०/२८८/४ (ग) बारस अणुवेक्खा ३६