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(२००)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन स्थिति रूप वह निश्चय शुक्ल ध्यान है । → भगवती आराधना में कहा गया है कि धर्म ध्यान में परिपूर्ण हआ अप्रमत्त संयमी ही शुक्ल ध्यान करने में समर्थ होता है क्योंकि जब तक वह पहली सीढ़ी (अर्थात् धर्म ध्यानी नहीं हो जाता) नहीं चढ़ पाता तब तक दूसरी सीढ़ी चढ़ना असम्भव है। + .. शक्ल ध्यान की मर्यादायें :
जिस तरह से धर्मध्यान की बारह प्ररूपणायें की गई हैं उसी प्रकार से शुक्ल ध्यान की भी बारह अधिकारों वाली प्ररूपणा है । उनमें भावना, देश, काल और आसन विशेष इन चार अधिकारों में धर्म ध्यान से कोई भी भिन्नता नहीं है, इसलिए इन चार अधिकारों का यहाँ वर्णन नहीं किया जा रहा है। बाकी के अधिकार ये हैंआलम्बन :
ध्यान के सन्दर्भ में आलम्बन साधक के लिए सहायक रूप में होते हैं, जिनका सहारा लेकर साधक आत्मिक प्रगति की सीढ़ी चढ़ता हुआ शिखर पर पहुँचता है। बिना आलम्बन के साधक लड़खड़ा सा जाता है इसलिए आलम्बन का सहारा लेता है। आलम्बन चार प्रकार के हैं .... → (क) ध्यान ध्येयध्याततत्फलादि विविध विकल्पनिमुक्तान्तम खाकार
निखिलकरण ग्राम गोचर निरंजन निजपरमतत्वाविचलस्थिति
रूप शक्लध्यानम् ।। (नियमसार, ता व० १२३) (ख) स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधिलक्षण शुक्ल ध्यानम् । प्रवचन
सार ता पृ० ८/१२) + इच्चेवमादिक्कतो धम्मज्झाणं जदा हवाइ खवओ।
सुक्कज्झाणं झायदि तत्तो सुविसुद्धलेस्साओ । (भगवती आराधना १८७१)
ध्यान शतक, वृत्ति ६८ .... [क] अह खंति-मद्दवऽज्जव-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ।
आलंबणाइजेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ ॥ (ध्यानशतक ६६) (ख) भगवती शंतक २५/७ (ग) सूक्स्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं.त-खंती मुत्ती मददवे
अज्जवे (स्थानाङग, पृ० १८८)