SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुवल ध्यान (१९९) विशुद्ध होते हैं तथा कर्मो का क्षय और उपशम होते हैं वहाँ लेश्या भी शुक्ल होती है उसे ही शुक्ल ध्यान कहा गया है। अपूर्वकरण आदि गुण स्थानों में जो उदासीन तत्त्वज्ञान होता है वह दोनों प्रकार के मल के नाश होने के कारण शक्ल ध्यान कहलाता है। यह ध्यान माणिक्य शिखा की तरह निर्मल और निष्कम्प रहता है । 4 समवायांग के अनुसार श्र त के आधार से मन की आत्यन्तिक स्थिरता एवं योग का निरोध शुक्ल ध्यान है । A जो शुचित्व अर्थात् शौच का अभिप्राय दोष आदि का अभाव हो जाना है ।= कषायमल का अभाव होने से शुक्लपना प्राप्त होता है ।+ ध्यान-ध्येय-ध्याता और ध्यान का फल आदि के विविध विकल्पों से विमुक्त, अन्तमुखाकार, समस्त इन्द्रिय समह के अगोचर निरंजन निज परमतत्व में अविचल x जत्थगुणा सविसुद्धा उपसम-खमण च जत्थ कम्माण । लेसा वि जत्थ सुक्का तं सुक्कं भण्णदे झाणं ॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल, ४८३) ॐ तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु । शुभाशुभ-मलाऽपायद्विशुद्ध शुक्लमभ्यधुः ।। शुचिगुण-योगाच्छु क्लं कषाय-रजसः क्षयादुयशमाद्वा । माणिक्य-शिखा-वदिदं सुनिर्मल निष्प्रकम्पं च ।। (तत्त्वानशासन २२१, २२२) A समवायांग ४ = शुक्लं शुचित्वसम्बन्धाच्छौचं दोषाद्यपोढता । (हरिवंश पुराण ५६/५३) + (क) कुदो एदस्स सुक्कत्तं कसायमलाभावादो। (धवला १३/५, ४, २६/७७/६) (ख) कषायमल विश्लेषात्प्रशमाद्वा प्रसूयते । - यतः पुंसामतस्तज्ज्ञैः शुक्लमुक्त मिरुत्तिकम् ।। (ज्ञानार्णव४२/६) (ग) मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुक्लं । (भावपाहुड टो० ७८/२२६/१८)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy