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शुक्ल ध्यान (२०१) -क्षमा, २-मार्दव, ३-आर्जव और ४-मुक्ति।
१-क्षमा :-शुक्ल ध्यानी साधक क्रोध विजेता होता है। क्रोध त्याग ही क्षमा है । कैसा भी क्रोध का प्रसंग आने पर शुक्लध्यानी के मानस में कभी भी क्रोध नहीं आता वह क्रोध कषाय पर विजय प्राप्त कर लेता है उसमें उत्तम क्षमा साकार हो जाती है।
२-मार्दव :-शक्लध्यानी साधक मार्दव अर्थात् मान कषाय पर विजय प्राप्त कर लेता है। चाहे उसे कितना भी ज्ञान हो जाये लेकिन वह मान नहीं करता हमेशा मदु व्यवहार रखता है ।
३-आर्जव :- शुक्ल ध्यानी साधक का चित्त अत्यन्त सरल होता है वह माया रूप कषाय का पूरी तरह से त्याग कर देता है। माया संसार के भवों को जननी मानी गयी है।
४-मुक्ति :- शक्ल ध्यानी साधक लोभी नहीं होता उसे किसी भी प्रकार का लोभ नहीं रहता वह पूरी तरह से इस कषाय से मुक्त रहता है। क्रम :
शक्ल ध्यान करने वाला साधक क्रमशः महद् आलम्बन की ओर बढ़ता है। प्रारम्भ में उसके मन का आलम्बन सारा जगत् होता है । धीरे-धीरे अभ्यास को करते हुए वह एक सूक्ष्म वस्तु पर स्थिर हो जाता है और जब तक वह मोक्ष पाने की अवस्था में आता है तब तक उनके मन का कहीं भी अस्तित्व नहीं रह पाता + ध्यान शतक में उसके आलम्बनों को दृष्टान्त से बतलाया गया है। जैसे सारे शरीर में फैले हए विष को मंत्र के द्वारा डंक वाले स्थान में रोका जाता है और फिर उसे बाहर निकाल दिया जाता है उसी प्रकार से विश्व के सभी विषयों में फैले हुए मन को एक परमाणु में नरुद्ध किया जाता है और फिर उससे हटाकर आत्मस्थ किया जाता है । इसी बात को और भी दृष्टान्तों में कहा गया है जैसे लोहे + तिहुयण विसयं कमसो संखि विउ मणो अणुमि छउमत्थो । ___झायइ सुनिप्पकपो झाणं अमणो जिणो होइ । (ध्यानशतक ७०)
जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं निम् भए डंके । तत्तो पुणोऽवणिज्जइ पहाणयरमंतजोगेणं ॥ तह तिहुयण-तणुविसयं मणोविसं जोगमंत बलजुत्तो। परमाणंमि निरुभइ अवणेइ तओवि जिण-वेज्जो।(ध्यानशतक७१/७२)