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( १९६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
क्षपकों व उपशमकों में होती है।+
आदिपुराण में धर्म ध्यान की स्थिति को आगम परम्परा के अनुसार सम्यग्दृष्टियों, संयतासंयतो और प्रमत्तसंयतों में स्वीकार करते हुए उसका परम प्रकर्ष अप्रमत्तों में माना गया है । ÷
वृहद्रव्य संग्रह टीका में धर्मं ध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत इन चार के माना गया है।
तत्त्वानुशासन में भी अप्रमत्त (सप्तमगुणस्थान) प्रमत्त, (षष्ठगुणस्थान), देशसंयमी (पंचम गुणस्थान) और सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थान) ऐसे धर्म ध्यान के स्वामी माने हैं लेकिन वहाँ मुख्य व गौण रूप से दो प्रकार का धर्म ध्यान मानकर सातवें गुणस्थानवर्ती को मुख्य धर्म ध्यानी व चौथे, पांचवे, छठे स्थान वाला गौण धर्म ध्यानी
माना गया है । —
अमितगतिश्रावकाचार में भी असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुण - स्थानों में ही धर्मध्यान का भाव माना गया है । =
+ असंजदसम्मादिट्ठि - संजदासंजद - पमत्तसजद - अप्पमत्तसंजद - अपुव्वसंजदअणियट्ठिसंजद - सुहुमसां पराइयखवगोवसामएस धम्मज्झाणस्स प्रवृत्ती होदित्ति जिणोवएसादो ।
(धनला पृ० १३, पृ० ७४)
- आदिपुराण २१/१५५-१५६
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चतुर्भेद भिन्नं तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयत सम्यग्दृष्टि- देशविरतप्रमत्त संयता - प्रमत्ताभिधान चतुर्गुणस्थानवति जीव सम्भवम् । (वृहद्रव्यसंग्रह टी०, पृ० १६८)
अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सदृष्टिर्देश संयतः ।
धर्मध्यानस्य चत्वारस्तत्वार्थेस्वामिनः स्मृताः ॥ मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानिमिह द्विधा ।
अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ।। (तत्त्वानुशासन ४६-४७ ) अनपेतस्य धर्मस्य धर्मतो दशभेदतः ।
चतुर्थः पंचमः षष्ठः सप्तमश्च प्रवर्तकः ॥ [ अमितगति श्रावकाचार [१५-१७]